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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


संतोखसिंह ने जवाब दिया—चुपचाप चली आओ।

मलका ने हिम्मत करके फिर क़दम बढ़ाये। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि रास्ते में मर ही क्यों न जाऊँ पर नाकाम न लौटूँगी। उस कै़द से बचने के लिए वह कड़ी मुसीबतें झेलने को तैयार थी।

सूरज निकला, सामने एक पहाड़ नज़र आया जिसकी चोटियाँ आसमान में घुसी हुई थीं। संतोखसिंह ने पूछा—इसी पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी पर शाह मसरूर मिलेंगे, चढ़ सकोगी?

मलका ने धीरज से कहा—हाँ, चढ़ने की कोशिश करूँगी।

बादशाह से भेंट होने की उम्मीद ने उसके बेजान पैरों में पर लगा दिए। वह तेज़ी से क़दम उठाकर पहाड़ पर चढ़ने लगी। पहाड़ के बीचों-बीच आते-आते वह थककर बैठ गयी, उसे ग़श आ गया। मालूम हुआ कि दम निकल रहा है। उसने निराश आँखों से अपने मित्र को देखा। संतोखसिंह ने कहा—एक दफ़ा और हिम्मत करो, दिल में खुदा की याद करो। मलका ने खुदा की याद की। उसकी आँखें खुल गयीं। वह फुर्ती से उठी और एक ही हल्ले में चोटी पर जा पहुँची। उसने एक ठंडी साँस ली। वहाँ शुद्ध हवा में साँस लेते ही मलका के शरीर में एक नयी ज़िन्दगी का अनुभव हुआ। उसका चेहरा दमकने लगा। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं चाहूँ तो हवा में उड़ सकती हूँ। उसने खुश होकर संतोखसिंह की तरफ़ देखा और आश्चर्य के सागर में डूब गयी। शरीर वही था, पर चेहरा शाह मसरूर का था। मलका ने फिर उसकी तरफ़ अचरज की आँखों से देखा। संतोखसिंह के शरीर पर से एक बादल का पर्दा हट गया और मलका को वहाँ शाह मसरूर खड़े नज़र आए—वही हल्का पीला कुर्ता, वही गेरुए रंग की तहमद। उनके मुखमण्डल से तेज की कांति बरस रही थी, माथा तारों की तरह चमक रहा था। मलका उनके पैरों पर गिर पड़ी। शाह मसरूर ने उसे सीने से लगा लिया।

—ज़माना, अप्रैल,१९१८
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