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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


विजयगढ़ के सचेत क्षेत्रों में देशवासियों के इस पागलपन से एक बेचैनी की हालत पैदा हुई, सिर्फ़ यही नहीं कि उनके देश की दौलत बर्बाद हो रही थी बल्कि उनका राष्ट्रीय अभिमान और तेज भी धूल में मिल जाता था। जयगढ़ की एक मामूली नाचनेवाली, चाहे वह कितनी ही मीठी अदाओं वाली क्यों न हो, विजयगढ़ के मनोरंजन का केंद्र बन जाय, यह बहुत बड़ा अन्याय था। आपस में मशविरे हुए और देश के पुरोहितों की तरफ़ से देश के मन्त्रियों की सेवा में इस ख़ास उद्देश्य से एक शिष्टमण्डल उपस्थित हुआ। विजयगढ़ के आमोद-प्रमोद के कर्त्ताओं की ओर से भी आवेनदपत्र पेश होने लगे। अख़बारों ने राष्ट्रीय अपमान और दुर्भाग्य के तराने छेड़े। साधारण लोगों के हल्क़ों में सवालों की बौछार होने लगी, यहाँ तक कि वज़ीर मजबूर हो गए, शीरीं बाई के नाम शाही फ़रमान पहुँचा—चूंकि तुम्हारे रहने से देश में उपद्रव होने की आशंका है इसलिए तुम फ़ौरन विजयगढ़ से चली जाओ। मगर यह हुक्म अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, आपसी इक़रारनामे और सभ्यता के नियमों के सरासर ख़िलाफ़ था। जयगढ़ के राजदूत ने, जो विजयगढ़ में नियुक्त था, इस आदेश पर आपत्ति की और शीरीं बाई ने आख़िरकार उसको मानने से इनकार किया क्योंकि इससे उसकी आज़ादी और खुद्दारी और उसके देश के अधिकारों और अभिमान पर चोट लगती थी।

जयगढ़ के कूचे और बाज़ार ख़ामोश थे। सैर की जगहें ख़ाली। तफ़रीह और तमाशे बन्द। शाही महल के लम्बे-चौड़े सहन और जनता के हरे-भरे मैदानों में आदमियों की भीड़ थी, मगर उनकी ज़बानें बन्द थीं और आँखें लाल। चेहरे का भाव कठोर और क्षुब्ध, त्योरियाँ चढ़ी हुईं, माथे पर शिकन, उमड़ी हुई काली घटा थी, डरावनी, ख़ामोश, और बाढ़ को अपने दामन में छिपाए हुए।

मगर आम लोगों में एक बड़ा हंगामा मचा हुआ था, कोई सुलह का हामी था, कोई लड़ाई की माँग करता था, कोई समझौते की सलाह देता था, कोई कहता था कि छानबीन करने के लिए कमीशन बैठाओ। मामला नाजुक था, मौका तंग, तो भी आपसी बहस-मुबाहसों, बदगुमानियों, और एक-दूसरे पर हमलों का बाज़ार गर्म था। आधी रात गुज़र गयी मगर कोई फ़ैसला न हो सका। पूँजी की संगठित शक्ति, उसकी पहुँच और रोबदाब फ़ैसले की ज़बान बन्द किये हुए था।

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