कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती—विजयगढ़ के बेख़बर सोने वालो, हमारे मेहरबान पड़ोसियों ने अपने अखबारों की जबान बन्द करने के लिए जो नये क़ायदे लागू किये हैं, उन पर नाराज़गी का इजहार करना हमारा फ़र्ज है। उनकी मंशा इसके सिवा और कुछ नहीं है कि वहाँ के मुआमलों से हमको बेख़बर रक्खा जाए और इस अँधेरे के परदे में हमारे ऊपर धावे किये जाएँ, हमारे गलों पर फेरने के लिए नये-नये हथियार तैयार किए जाएँ, और आख़िरकार हमारा नाम-निशान मिटा दिया जाए। लेकिन हम अपने दोस्तों को जता देना अपना फ़र्ज समझते हैं कि अगर उन्हें शरारत के हथियारों की ईजाद के कमाल है तो हमें भी उनकी काट करने में कमाल है। अगर शैतान उनका मददगार है तो हमको भी ईश्वर की सहायता प्राप्त है और अगर अब तक हमारे दोस्तों को मालूम नहीं है तो अब होना चाहिए कि ईश्वर की सहायता हमेशा शैतान को दबा देती है।
जयगढ़ बाकमाल कलावन्तों का अखाड़ा था। शीरीं बाई इस अखाड़े की सब्ज परी थी, उसकी कला की दूर-दूर तक ख्याति थी। वह संगीत की रानी थी जिसकी ड्योढ़ी पर बड़े-बड़े नामवर आकर सिर झुकाते थे। चारों तरफ़ विजय का डंका बजाकर उसने विजयगढ़ की ओर प्रस्थान किया, जिससे अब तक उसे अपनी प्रशंसा का कर न मिला था। उसके आते ही विजयगढ़ में एक इंक़लाब-सा हो गया। राग-द्वेष और अनुचित गर्व हवा से उड़ने वाली सूखी पत्तियों की तरह तितर-बितर हो गए। सौंदर्य और राग-रंग के बाज़ार में धूल उड़ने लगी, थिएटरों और नृत्यशालाओं में वीरानी छा गयी। ऐसा मालूम होता था कि जैसे सारी सृष्टि पर जादू छा गया है। शाम होते ही विजयगढ़ के धनी-धोरी, जवान-बूढ़े शीरीं बाई की मजलिस की तरफ़ दौड़ते थे। सारा देश शीरीं की भक्ति के नशे में डूब गया।
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