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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


लेकिन मिर्जा जलाल को वतन की याद हमेशा सताया करती। वह असकरी को गोद में ले लेता और कोट पर चढ़कर उसे जयगढ़ की वह मुस्कराती हुई चरागाहें और मतवाले झरने और सुथरी बस्तियाँ दिखाता जिनके कंगूरे क़िले से नज़र आते। उस वक़्त बेअख़्तियार उसके ज़िगर से सर्द आह निकल जाती और आँखें ड़बड़बा आतीं। वह असकरी को गले लगा लेता और कहता—बेटा, वह तुम्हारा देश है। वही तुम्हारा और तुम्हारे बुजुर्गों का घोंसला है। तुमसे हो सके तो उसके एक कोने में बैठे हुए अपनी उम्र ख़त्म कर देना, मगर उसकी आन में कभी बट्टा न लगाना। कभी उससे दग़ा मत करना क्योंकि तुम उसी कि मिट्टी और पानी से पैदा हुए हो और तुम्हारे बुजुर्गों की पाक रूहें अब भी वहाँ मँड़ला रही हैं। इस तरह बचपने से ही असकरी के दिल पर देश की सेवा और प्रेम अंकित हो गया था। वह जवान हुआ, तो जयगढ़ पर जान देता था। उसकी शान-शौकत पर निसार, उसके रोबदाब की माला जपने वाला। उसकी बेहतरी को आगे बढ़ाने के लिए हर वक्त़ तैयार। उसके झण्डे को नयी अछूती धरती में गाड़ने का इच्छुक। बीस साल का सजीला जवान था, इरादा मजबूत, हौसले बुलन्द, हिम्मत बड़ी, फ़ौलादी जिस्म, आकर जयगढ़ की फ़ौज में दाख़िल हो गया और इस वक़्त जयगढ़ की फ़ौज का चमकता सूरज बना हुआ था।

जयगढ़ ने अल्टीमेटम दे दिया—अगर चौबीस घण्टों के अन्दर शीरीं बाईं जयगढ़ न पहुँची तो उसकी अगवानी के लिए जयगढ़ की फ़ौज रवाना होगी।

विजयगढ़ ने जवाब दिया—जयगढ़ की फ़ौज आये, हम उसकी अगवानी के लिए हाज़िर हैं। शीरीं बाई जब तक यहाँ की अदालत से हुक्म-उदूली की सज़ा न पा ले, वह रिहा नहीं हो सकती और जयगढ़ को हमारे अंदरूनी मामलों में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं।

असकरी ने मुँहमाँगी मुराद पायी। खुफ़िया तौर पर एक दूत मिर्ज़ा जलाल के पास रवाना किया और ख़त में लिखा—

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