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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘मगर क्या दग़ा हर एक हालत में गुनाह है? ऐसी हालतें भी तो हैं, जब दग़ा वफ़ा से भी ज़्यादा अच्छी हो जाती है। अपने दुश्मन से दग़ा करना क्या गुनाह है? अपनी कौम के दुश्मन से दग़ा करना क्या गुनाह है? कितने ही काम जो जाती हैसियत से ऐसे होते हैं कि उन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता, कौमी हैसियत से नेक काम हो जाते हैं। वही बेगुनाह का ख़ून जो जाती हैसियत से सख्त़ सजा के क़ाबिल है, मजहबी हैसियत से शहादत का दर्जा पाता है, और क़ौमी हैसियत से देश-प्रेम का। कितनी बेरहमियाँ और जुल्म, कितनी दगाएँ और चालबाजियाँ, कौमी और मजहबी नुक्ते-निगाह से सिर्फ़ ठीक ही नहीं, फ़र्जों में दाख़िल हो जाती हैं। हाल की यूरोप की बड़ी लड़ाई में इसकी कितनी ही मिसालें मिल सकती हैं। दुनिया का इतिहास ऐसी दग़ाओं से भरा पड़ा है। इस नये दौर में भले और बुरे का जाती एहसास क़ौमी मसलहत के सामने कोई हक़ीक़त नहीं रखता। क़ौमियत ने जात को मिटा दिया है। मुमकिन है यही खुदा की मंशा हो। और उसके दरबार में भी हमारे कारनामें क़ौम की कसौटी ही पर परखे जायँ। यह मसला इतना आसान नहीं है जितना मैं समझता था।

‘फिर आसमान में शोर हुआ मगर शायद यह इधर ही के हवाई जहाज हैं। आज जयगढ़ वाले बड़े दमख़म से लड़ रहे हैं। इधर वाले दबते नज़र आते हैं। आज यकीनन मैदान उन्हीं के हाथ में रहेगा। जान पर खेले हुए हैं। जयगढ़ी वीरों की बहादुरी मायूसी ही में ख़ूब खुलती है। उनकी हार जीत से भी ज़्यादा शानदार होती है। बेशक, असकरी दाँव-पेंच का उस्ताद है, किस ख़ूबसूरती से अपनी फ़ौज का रूख क़िले के दरवाजे़ की तरफ़ फेर दिया। मगर सख़्त ग़लती कर रहे हैं। अपने हाथों अपनी क़ब्र खोद रहे हैं। सामने का मैदान दुश्मन के लिए खाली किये देते हैं। वह चाहे तो बिना रोक-टोक आगे बढ़ सकता है और सुबह तक जयगढ़ की सरज़मीन में दाख़िल हो सकता है। जयगढ़ियों के लिए वापसी या तो ग़ैरमुमकिन है या निहायत ख़तरनाक। क़िले का दरवाज़ा बहुत मज़बूत है। दीवारों की संधियों से उन पर बेशुमार बन्दूकों के निशाने पड़ेंगे। उनका इस आग में एक घण्टा भी ठहरना मुमकिन नहीं है। क्या इतने देशवासियों की जानें सिर्फ़ एक उसूल पर, सिर्फ़ हिसाब के दिन के डर पर, सिर्फ़ अपने इख़लाक़ी एहसास पर कुर्बान कर दूँ? और महज जानें ही क्यों? इस फ़ौज की तबाही जयगढ़ की तबाही है। कल जयगढ़ की पाक सरजमीन दुश्मन की जीत के नक्क़ारों से गूँज उठेगी। मेरी माएँ, बहनें और बेटियाँ हया को जलाकर ख़ाक कर देने वाली हरकतों का शिकार होंगी। सारे मुल्क में क़त्ल और तबाही के हंगामे बरपा होंगे। पुरानी अदावत और झगड़ों के शोले भड़केंगे। कब्रिस्तान में सोयी हुई रूहें दुश्मन के क़दमों से पामाल होंगी। वह इमारतें जो हमारे पिछले बड़प्पन की जिन्दा निशानियाँ हैं, वह यादगारें जो हमारे बुजुर्गों की देन हैं, जो हमारे कारनामों के इतिहास, हमारे कमालों का ख़जाना और हमारी मेहनतों की रोशन गवाहियाँ हैं, जिनकी सजावट और खूबी को दुनिया की क़ौमें स्पर्द्धा की आँखों से देखती हैं वह अर्द्ध-बर्बर, असभ्य लश्करियों का पड़ाव बनेंगी और उनके तबाही के जोश का शिकार। क्या अपनी क़ौम को उन तबाहियों का निशाना बनने दूँ? महज इसलिए कि वफ़ा का मेरा उसूल न टूटे?

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