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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘उफ्, यह क़िले में ज़हरीले गैस कहाँ से आ गये! किसी जयगढ़ी जहाज की हरकत होगी। सर में चक्कर-सा आ रहा है। यहाँ से कुमक भेजी जा रही है। किले की दीवार के सूराखों में भी तोपें चढ़ाई जा रही हैं। जयगढ़वाले क़िले के सामने आ गये। एक धावे में वह हुमायूँ दरवाज़े तक आ पहुँचेंगे। विजयगढ़ वाले इस बाढ़ को अब नहीं रोक सकते। जयगढ़ वालों के सामने कौन ठहर सकता है? या अल्लाह, किसी तरह दरवाजा खुद-ब-खुद खुल जाता, कोई जयगढ़ी हवाबाज मुझसे जबर्दस्ती कुंजी छीन लेता। मुझे मार डालता। आह, मेरे इतने अजीज हम-वतन प्यारे भाई आन की आन में ख़ाक में मिल जायेंगे और मैं बेबस हूँ! हाथों में जंजीर है, पैरों में बेड़ियाँ। एक-एक रोआँ रस्सियों से जक़ड़ा हुआ है। क्यों न इस जंजीर को तोड़ दूँ, इन बेड़ियों के टुकड़े-टुकड़े कर दूँ, और दरवाज़े के दोनों बाजू अपने अजीज फ़तेह करने वालों की अगवानी के लिए खोल दूँ! माना कि यह गुनाह है पर यह मौक़ा गुनाह से डरने का नहीं। जहन्नुम की आग उगलने वाले साँप और ख़ून पीने वाले जानवर और लपकते हुए शोले मेरी रूह को जलायें, तड़पायें कोई बात नहीं। अगर महज मेरी रूह की तबाही, मेरी क़ौम और वतन को मौत के गड्ढे से बचा सके तो वह मुबारक है। विजयगढ़ ने ज्यादती की है, उसने महज जयगढ़ को जलील करने के लिए सिर्फ़ उसको भड़काने के लिए शीरीं बाई को शहर-निकाले को हुक्म़ जारी किया जो सरासर बेजा था। हाय, अफ़सोस, मैंने उसी वक़्त इस्तीफ़ा क्यों न दे दिया और ग़ुलामी की इस क़ैद से क्यों न निकल गया।

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