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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘हाय ग़जब, जयगढ़ी फ़ौज ख़न्दकों तक पहुँच गयी, या खुदा! इन जाँबाजों पर रहम कर, इनकी मदद कर। कलदार तोपों से कैसे गोले बरस रहे हैं, गोया आसमान के बेशुमार तारे टूट पड़ते हैं। अल्लाह की पनाह, हुमायूँ दरवाज़े पर गोलों की कैसी चोटें पड़ रही हैं। कान के परदे फ़टे जाते हैं। काश दरवाज़ा टूट जाता! हाय मेरा असकरी, मेरे जिगर का टुकड़ा, वह घोड़े पर सवार आ रहा है। कैसा बहादुर, कैसा जांबाज, कैसी पक्की हिम्मत वाला! आह, मुझ अभागे कलमुंहे की मौत क्यों नही आ जाती! मेरे सर पर कोई गोला क्यों नहीं आ गिरता! हाय, जिस पौधे को अपने जिगर के ख़ून से पाला, जो मेरी पतझड़ जैसी ज़िन्दगी का सदाबहार फूल था, जो मेरी अँधेरी रात का चिराग, मेरी ज़िन्दगी की उम्मीद, मेरी हस्ती का दारोमदार, मेरी आरजू की इन्तहा था, वह मेरी आँखों के सामने आग के भँवर में पड़ा हुआ है, और मैं हिल नहीं सकता। इस क़ातिल ज़ंजीर को क्योंकर तोड़ दूँस? इस बाग़ी दिल को क्योंकर समझाऊँ? मुझे मुँह में कालिख लगाना मंजूर है, मुझे जहन्नुम की मुसीबतें झेलना मंजूर है, मैं सारी दुनिया के गुनाहों का बोझ अपने सर पर लेने को तैयार हूँ, सिर्फ़ इस वक्त मुझे गुनाही करने की, वफ़ा के पैमाने को तोड़ने की, नमकहराम बनने की तौफ़ीक़ दे! एक लम्हे के लिए मुझे शैतान के हवाले कर दे, मैं नमक हराम बनूँगा, दग़ाबाज बनूँगा पर क़ौमफ़रोश नहीं बन सकता!

‘आह, जालिम सुरंगें उड़ाने की तैयारी कर रहे हैं। सिपहसालार ने हुक्म दे दिया। वह तीन आदमी तहखाने की तरफ़ चले। जिगर काँप रहा है, जिस्म काँप रहा है। यह आख़िरी मौक़ा है। एक लमहा और, बस फिर अँधेरा है और तबाही। हाय, मेरे ये बेवफ़ा हाथ-पाँव अब भी नहीं हिलते, जैसे इन्होंने मुझसे मुँह मोड़ लिया हो। यह ख़ून अब भी गरम नहीं होता। आह, वह धमाके की आवाज़ हुई, खुदा की पनाह, ज़मीन काँप उठी, हाय असकरी, असकरी, रूख़सत, मेरे प्यारे बेटे, रूख़सत, इस जालिम बेरहम बाप ने तुझे अपनी वफ़ा पर कुर्बान कर दिया! मैं तेरा बाप न था, तेरा दुश्मन था! मैंने तेरे गले पर छुरी चलायी। अब धुआँ साफ़ हो गया। आह वह फ़ौज कहाँ है जो सैलाब की तरह बढ़ती आती थी और इन दीवारों से टकरा रही थी। ख़न्दकें लाशों से भरी हुई हैं और वह जिसका मैं दुश्मन था, जिसका क़ातिल, वह बेटा, वह मेरा दुलारा असकरी कहाँ है, कहीं नज़र नही आता…आह…।’

—ज़माना, नवम्बर, १९१८
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