कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मुबारक बीमारी
रात के नौ बज गये थे, एक युवती अँगीठी के सामने बैठी हुई आग फूँकती थी और उसके गाल आग के कुन्दनी रंग में दहक रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी नरगिसी आँखें दरवाज़े की तरफ़ लगी हुई थीं। कभी चौंककर आँगन की तरफ़ ताकती, कभी कमरे की तरफ़। फिर आनेवालों की इस देरी से त्योरियों पर बल पड़ जाते और आँखों में हलका-सा गुस्सा नज़र आता। कमल पानी में झकोले खाने लगता।
इसी बीच आनेवालों की आहट मिली। कहार बाहर पड़ा खर्राटे ले रहा था। बूढ़े लाला हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहा—कम्बख्त, अभी शाम हुई है और अभी से लम्बी तान दी!
नौजवान लाला हरिदास घर में दाख़िल हुए—चेहरा बुझा हुआ, चिन्तित। देवकी ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और गुस्से व प्यार की मिली ही हुई आवाज़ में बोली—आज इतनी देर क्यों हुई?
दोनों नये खिले हुए फूल थे—एक पर ओस की ताज़गी थी, दूसरा धूप से मुरझाया हुआ। हरिदास—हाँ, आज देर हो गयी, तुम यहाँ क्यों बैठी रहीं?
देवकी—क्या करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठंडा हो जाता।
हरिदास—तुम जरा-से काम के लिए इतनी आग के सामने न बैठा करो। बाज आया गरम खाने से।
देवकी—अच्छा, कपड़े तो उतारो, आज इतनी देर क्यों की?
हरिदास—क्या बताऊँ, पिताजी ने ऐसा नाक में दम कर दिया है कि कुछ कहते नहीं बनता। इस रोज़-रोज़ की झंझट से तो यही अच्छा कि मैं कहीं और नौकरी कर लूँ।
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