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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


क्षण-भर बाद उसने हुक्म दिया—आज हमारा यहीं क़याम होगा।

आधी रात गुज़र चुकी थी, लश्कर के आदमी मीठी नींद सो रहे थे। चारों तरफ़ मशालें जलती थीं और तिलाये के जवान जगह-जगह बैठे जम्हाइयाँ लेते थे। लेकिन क़ासिम की आँखों में नींद न थी। वह अपने लम्बे-चौड़े पुरलुत्फ़ ख़ेमे में बैठा हुआ सोच रहा था—क्या इस ज़वान औरत को एक नज़र देख लेना कोई बड़ा गुनाह है? माना कि वह मुलतान के राजा की शहजादी है और मेरे बादशाह अपने हरम को उससे रोशन करना चाहते हैं लेकिन मेरी आरजू तो सिर्फ़ इतनी है कि उसे एक निगाह देख लूँ और वह भी इस तरह कि किसी को ख़बर न हो। बस। और मान लो यह गुनाह भी हो तो मैं इस वक़्त वह गुनाह करूँगा। अभी हजारों बेगुनाहों को इन्हीं हाथों से क़त्ल कर आया हूँ। क्या खुदा के दरबार में गुनाहों की माफ़ी सिर्फ़ इसलिए हो जाएगी कि बादशाह के हुक्म से किये गये? कुछ भी हो, किसी नाजनीन को एक नज़र देख लेना किसी की जान लेने से बड़ा गुनाह नहीं। कम से कम मैं ऐसा नहीं समझता।

क़ासिम दीनदार नौजवान था। वह देर तक इस काम के नैतिक पहलू पर ग़ौर करता रहा। मुलतान को फ़तेह करने वाला हीरो दूसरी बाधाओं को क्यों ख़याल में लाता?

उसने अपने खेमे से बाहर निकलकर देखा, बेगमों के खेमे थोड़ी ही दूर पर गड़े हुए थे। क़ासिम ने जान-बूझकर अपना खेमा उसके पास लगाया था। इन खेमों के चारों तरफ़ कई मशालें जल रही थीं और पाँच हब्शी ख्वाजासरा नंगी तलवारें लिये टहल रहे थे। क़ासिम आकर मसनद पर लेट गया और सोचने लगा—इन कम्बख्त़ों को क्या नींद न आयेगी? और चारों तरफ़ इतनी मशाले क्यों जला रक्खी हैं? इनका गुल होना जरूरी है। इसलिए पुकारा—मसरूर।

—हुजुर, फ़रमाइए?

—मशालें बुझा दो, मुझे नींद नहीं आती।

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