लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


—हुजूर, रात अँधेरी है।

—कोई डर नहीं। तिलाये के जवान होशियार हैं।

—सब की सब गुल कर दी जायँ?

—हाँ।

—जैसी हुजूर की मर्ज़ी।

ख्व़ाजासरा चला गया और एक पल में सब की सब मशालें गुल हो गयीं, अँधेरा छा गया। थोड़ी देर में एक औरत ने शहजादी के खेमे से निकलकर पूछा—मसरूर, सरकार पूछती हैं, यह मशालें क्यों बुझा दी गयीं?

मसरूर बोला—सिपहदार साहब की मर्ज़ी। तुम लोग होशियार रहना, मुझे उनकी नियत साफ़ नहीं मालूम होती।

क़ासिम उत्सुकता से व्यग्र होकर कभी लेटता था, कभी उठ बैठता था, कभी टहलने लगता था। बार-बार दरवाज़े पर आकर देखता, लेकिन पांचों ख्व़ाजासरा देवों की तरह खड़े नज़र आते थे। क़ासिम को इस वक़्त यही धुन थी कि शाहजादी का दर्शन क्योंकर हो। अंजाम की फ़िक्र, बदनामी का डर और शाही गुस्से का ख़तरा उस पुरजोर ख़्वाहिश के नीचे दब गया था।

घड़ियाल ने एक बजाया। क़ासिम यों चौंक पड़ा गोया कोई अनहोनी बात हो गयी। जैसे कचहरी में बैठा हुआ कोई फ़रियादी अपने नाम की पुकार सुनकर चौंक पड़ता है। ओ हो, तीन ही घंटों में सुबह हो जाएगी। खेमे उखड़ जाएँगे। लश्कर कूच कर देगा। वक़्त तंग है, अब देर करने की, हिचकिचाने की गुंजाइश नहीं। कल दिल्ली पहुँच जायेंगे। अरमान दिल में क्यों रह जाये, किसी तरह इन हरामखोर ख्वाजासराओं को चकमा देना चाहिए। उसने बाहर निकल आवाज दी—मसरूर।

—हुजूर, फ़रमाइए।

—होशियार हो न?

—हुजूर पलक तक नहीं झपकी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book