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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगर घाट पर पहुँचा तो नाव में आधे मुसाफ़िर भी न बैठे थे। मैं कूदकर जा बैठा। खेवे के पैसे भी निकालकर दे दिये लेकिन नाव है कि वहीं अचल ठहरी हुई है। मुसाफिरों की संख्या काफ़ी नहीं है, कैसे खुले। लोग तहसील और कचहरी से आते जाते हैं और बैठते जाते हैं और मैं हूँ कि अन्दर ही अन्दर भुना जाता हूँ। सूरज नीचे दौड़ा चला जा रहा है, गोया मुझसे बाजी लगाये हुए है। अभी सफेद था, फिर पीला होना शुरू हुआ और देखते-देखते लाल हो गया। नदी के उस पार क्षितिज पर लटका हुआ, जैसे कोई डोल कुएं पर लटक रहा है। हवा में कुछ खुनकी भी आ गयी, भूख भी मालूम होने लगी। मैंने आज घर जाने की खुशी और हड़बड़ी में रोटियां न पकायी थीं, सोचा था कि शाम को तो घर पहुँच जाऊँगा, लाओ एक पैसे के चने लेकर खा लूं। उन दानों ने इतनी देर तक तो साथ दिया, अब पेट की पेचीदगियों में जाकर न जाने कहाँ गुम हो गये। मगर क्या गम है, रास्ते में क्या दुकानें न होंगी, दो-चार पैसे की मिठाइयाँ लेकर खा लूँगा।

जब नाव उस किनारे पहुँची तो सूरज की सिर्फ़ अखिरी सांस बाक़ी थी, हालांकि नदी का पाट बिलकुल पेंदे में चिमटकर रह गया था।

मैंने पोटली उठायी और तेजी से चला। दोनों तरफ़ चने के खेते थे जिनके ऊदे फूलों पर ओस का हलका-सा पर्दा पड़ चला था। बेअख़्तियार एक खेत में घुसकर बूट उखाड़ लिये और टूँगता हुआ भागा।

सामने बारह मील की मंज़िल है, कच्चा सुनसान रास्ता, शाम हो गयी है, मुझे पहली बार गलती मालूम हुई। लेकिन बचपन के जोश ने कहा, कि क्या बात है, एक-दो मील तो दौड़ ही सकते हैं। बारह को मन में १७६० से गुणा किया, बीस हज़ार गज़ ही तो होते हैं। बारह मील के मुक़ाबिले में बीस हज़ार गज़ कुछ हलके और आसान मालूम हुए। और जब दो-तीन मील रह जायगा तब तो एक तरह से अपने गाँव ही में हूँगा, उसका क्या शुमार। हिम्मत बंध गयी। इक्के-दुक्के मुसाफ़िर भी पीछे चले आ रहे थे, और इत्मीनान हुआ।

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