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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अँधेरा हो गया है, मैं लपका जा रहा हूँ। सड़क के किनारे दूर से एक झोंपड़ी नज़र आती है। एक कुप्पी जल रही है। ज़रूर किसी बनिये की दुकान होगी। और कुछ न होगा तो गुड़ और चने तो मिल ही जायँगे। क़दम और तेज़ करता हूँ। झोंपड़ी आती है। उसके सामने एक क्षण के लिए खड़ा हो जाता हूँ। चार-पाँच आदमी उकड़ूं बैठे हुए हैं, बीच में एक बोतल है, हर एक के सामने एक-एक कुल्हाड़। दीवार से मिली हुई ऊंची गद्दी है, उस पर साहजी बैठे हुए हैं, उनके सामने कई बोतलें रखी हुई हैं। ज़रा और पीछे हटकर एक आदमी कड़ाही में सूखे मटर भून रहा है। उसकी सोंधी खुशबू मेरे शरीर में बिजली की तरह दौड़ जाती है। बेचैन होकर जेब में हाथ डालता हूँ और एक पैसा निकालकर उसकी तरफ़ चलता हूँ लेकिन पाँव आप ही रुक जाते हैं–  यह कलवारिया है।

खोंचेवाला पूछता है–  क्या लोगे?

मैं कहता हूँ– कुछ नहीं।

और आगे बढ़ जाता हूँ। दुकान भी मिली तो शराब की, गोया दुनिया में इन्सान के लिए शराब ही सबसे ज़रूरी चीज़ है। यह सब आदमी धोबी और चमार होंगे, दूसरा कौन शराब पीता है, देहात में। मगर वह मटर का आकर्षक सोंधापन मेरा पीछा कर रहा है और मैं भागा जा रहा हूँ।

किताबों की पोटली जी का जंजाल हो गया है, ऐसी इच्छा होती है कि इसे यहीं सड़क पर पटक दूँ। उसका वज़न मुश्किल से पाँच सेर होगा, मगर इस वक़्त मुझे मन-भर से ज़्यादा मालूम हो रही है। शरीर में कमज़ोरी महसूस हो रही है। पूरनमासी का चांद पेड़ों के ऊपर जा बैठा है और पत्तियों के बीच से ज़मीन की तरफ़ झांक रहा है। मैं बिलकुल अकेला जा रहा हूँ, मगर दर्द बिलकुल नहीं है, भूख ने सारी चेतना को दबा रखा है और खुद उस पर हावी हो गयी है।

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