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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


घाट पर पहुँचकर मैं साहब से रुख़सत हुआ, उनकी सज्जनता, निःस्वार्थ सेवा, और अदम्य साहस का न मिटने वाला असर दिल पर लिये हुए। मेरे जी में आया, काश मैं भी इस तरह लोगों के काम आ सकता।

तीन बजे रात को जब मैं घर पहुँचा तो होली में आग लग रही थी। मैं स्टेशन से दो मील सरपट दौड़ता हुआ गया। मालूम नहीं भूखे शरीर में इतनी ताक़त कहाँ से आ गयी थी।

अम्माँ मेरी आवाज़ सुनते ही आंगन में निकल आयीं और मुझे छाती से लगा लिया और बोली– इतनी रात कहाँ कर दी, मैं तो सांझ से तुम्हारी राह देख रही थी, चलो खाना खा लो, कुछ खाया-पिया है कि नहीं?

वह अब स्वर्ग में हैं। लेकिन उनका वह मुहब्बत-भरा चेहरा मेरी आँखों के सामने है और वह प्यार-भरी आवाज़ कानों में गूंज रही है।

मिस्टर जैक्सन से कई बार मिल चुका हूँ। उसकी सज्जनता ने मुझे उसका भक्त बना दिया हैं। मैं उसे इन्सान नहीं फरिश्ता समझता हूँ।

–  ‘ज़ादे राह’ से
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