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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


आख़िर यही फैसला हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देनी चाहिए। पानी की प्याली और थोड़े-से चावल रख देने का प्रस्ताव भी स्वीकृत हो गया।

दोनों बच्चे बड़े चाव से काम करने लगे श्यामा माँ की आँख बचाकर मटके से चावल निकाल लायी। केशव ने पत्थर की प्याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और ख़ूब साफ़ करके उसमें पानी भरा।

अब चाँदनी के लिए कपड़ा कहाँ से लाये? फिर ऊपर बगैर छड़ियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और छड़ियाँ खड़ी होंगी कैसे?

केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़-बुन में रहा। आख़िरकार उसने यह मुश्किल भी हल कर दी। श्यामा से बोला– जाकर कूड़ा फेंकने वाली टोकरी उठा लाओ। अम्माँजी को मत दिखाना।

श्यामा– वह तो बीच में फटी हुई है। उसमें से धूप न जायगी?

केशव ने झुंझलाकर कहा– तू टोकरी तो ला, मैं उसका सुराख बन्द करने की कोई हिकमत निकालूँगा।

श्यामा दौड़कर टोकरी उठा लायी। केशव ने उसके सुराख में थोड़ा– सा काग़ज़ ठूँस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला– देख ऐसे ही घोंसले पर उसकी आड़ दूँगा। तब कैसे धूप जायगी?

श्यामा ने दिल में सोचा, भइया कितने चालाक हैं।

गर्मी के दिन थे। बाबूजी दफ्तर गये हुए थे। अम्माँ दोनों बच्चों को कमरे में सुलाकर खुद सो गयी थीं। लेकिन बच्चों की आँखों में आज नींद कहाँ? अम्माजी को बहकाने के लिए दोनों दम रोके आँखें बन्द किये मौके का इन्तज़ार कर रहे थे। ज्यों ही मालूम हुआ कि अम्माँ जी अच्छी तरह सो गयीं, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से दरवाज़े की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आये। अण्डों की हिफ़ाजत करने की तैयारियाँ होने लगीं। केशव कमरे में से एक स्टूल उठा लाया, लेकिन जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी लाकर स्टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्टूल पर चढ़ा।

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