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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


देवीजी ने अविश्वास से हंसकर कहा-तो मैं समझ गयी यह आपकी देवीजी का कुसूर नहीं, आपका कुसूर है।

अमरनाथ ने लज्जित होकर कहा– मैं आपसे सच कहता हूँ, आज वह घर पर नहीं।

देवी ने पूछा– कल आ जायेंगी?

अमरनाथ बोले– हाँ, कल आ जायेंगी।

देवी– तो आप यह साड़ी मुझे दे दीजिए और कल यहीं आ जाइएगा, मैं आपके साथ चलूँगी। मेरे साथ दो-चार बहनें भी होंगी।

अमरनाथ ने बिना किसी आपत्ति के वह साड़ी देवीजी को दे दी और बोले-बहुत अच्छा, मैं कल आ जाऊँगा। मगर क्या आपको मुझ पर विश्वास नहीं है जो साड़ी की ज़मानत ज़रूरी है?

देवीजी ने मुस्कराकर कहा-सच्ची बात तो यही है कि मुझे आप पर विश्वास नहीं।

अमरनाथ ने स्वाभिमानपूर्वक कहा– अच्छी बात है, आप इसे ले जाएँ।

देवी ने क्षण-भर बाद कहा– शायद आपको बुरा लग रहा हो कि कहीं साड़ी गुम न हो जाए। इसे आप लेते जाइए, मगर कल आइए ज़रूर।

अमरनाथ स्वाभिमान के मारे बगैर कुछ कहे घर की तरफ़ चल दिये, देवीजी ‘लेते जाइए लेते जाइए’ करती रह गयीं।

अमरनाथ घर न जाकर एक खद्दर की दुकान पर गये और दो सूटों का खद्दर खरीदा। फिर अपने दर्जी के पास ले जाकर बोले– खलीफ़ा, इसे रातों-रात तैयार कर दो, मुँहमाँगी सिलाई दूँगा।

दर्जी ने कहा– बाबू साहब, आजकल तो होली की भीड़ है। होली से पहले तैयार न हो सकेंगे।

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