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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मालती ने उन्हें खाली हाथ देखकर त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा– साड़ी लाये या नहीं?

अमरनाथ ने उदासीनता के ढंग से जवाब दिया– नहीं।

मालती ने आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखा– नहीं! वह उनके मुँह से यह शब्द सुनने की आदी न थी। यहाँ उसने सम्पूर्ण समर्पण पाया था। उसका इशारा अमरनाथ के लिए भाग्य– लिपि के समान था।

बोली-क्यों?

अमरनाथ–  क्यों क्या, नहीं लाये।

मालती– बाज़ार में मिली न होगी। तुम्हें क्यों मिलने लगी, और मेरे लिए।

अमरनाथ– नहीं साहब, मिली मगर लाया नहीं।

मालती– आख़िर कोई वजह? रुपये मुझसे ले जाते।

अमरनाथ– तुम खामख़ाह जलाती हो। तुम्हारे लिए जान देने को मैं हाज़िर रहा।

मालती– तो शायद तुम्हें रुपये जान से भी ज़्यादा प्यारे हों?

अमरनाथ– तुम मुझे बैठने दोगी या नहीं? अमर मेरी सूरत से नफ़रत हो तो चला जाऊँ!

मालती– तुम्हें आज हो क्या गया है, तुम तो इतने तेज मिजाज के न थे?

अमरनाथ– तुम बातें ही ऐसी कर रही हो।

मालती– तो आख़िर मेरी चीज़ क्यों नहीं लाये?

अमरनाथ ने उसकी तरफ़ बड़े वीर-भाव के साथ देखकर कहा– दुकान पर गया, ज़िल्लत उठायी और साड़ी लेकर चला तो एक औरत ने छीन ली। मैंने कहा, मेरी बीवी की फ़रमाइश है तो बोली-मैं उन्हीं को दूंगी, कल तुम्हारे घर आऊँगी।

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