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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


अभी सफलगढ़ की विजय पुरानी नहीं हुई थी, अभी वीरमदेव की वीरता की साख लोगों को भूलने न पायी थी कि कलानौर को अलाउद्दीन के सिपाहियों ने घेर लिया। लोग चकित थे, परंतु वीरमदेव थे कि यह आग सुलक्षणा की लगायी हुई है।

कलानौर यद्यपि दुर्ग था, परंतु इससे वीरमदेव ने मन नहीं हार दिया। सफलगढ़ की नूतन विजय से उनके साहस बढ़े हुए थे। अलाउद्दीन पर उनको असीम क्रोध था। मैंने उसकी कितनी सेवा की, इतनी दूर की कठिन यात्रा करके पठानों से दुर्ग छीनकर दिया, अपने प्राणों के समान प्यारे राजपूतों का रक्त पानी की तरह बहा दिया और उसके बदले में, जागीरों के स्थान में यह अपमान प्राप्त हुआ है।

परंतु राजवती को सफलगढ़ की विजय और वीरमदेव के आगमन से इतनी प्रसन्नता न हुई थी, जितनी आज हुई। आज उसके नेत्रों में आनंद की झलक थी और चेहरे पर अभिमान तथा गौरव का रंग। वीरमदेव भूले हुए थे, अलाउद्दीन ने उन्हें शिक्षा देनी चाही है। पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय सहस्त्र गुना अच्छी है। पहले उसे ग्लानियुक्त प्रसन्नता थी–अब हर्षयुक्त भय। पहले उनका मन रोता था, परंतु आँखें छिपाती थीं। आज हृदय हँसता था और आँखें मुस्कराती थीं। वह इठलाती हुई पति के सम्मुख गयी और बोली–‘क्या संकल्प है?’

वीरमदेव जोश और क्रोध से दीवाने हो रहे थे, झल्लाकर बोले–‘मैं अलाउद्दीन के दाँत खट्टे कर दूँगा।’

राजवती ने कहा–‘जीवननाथ! आज मेरे उजड़े हुए हृदय में आनंदनदी उमड़ी हुई है!’

‘क्यों?’

‘क्योंकि आज आप स्वाधीन राजपूतों की नाईं बोल रहे हैं। आज आप वे नहीं हैं, जो पंद्रह दिन पहले थे। उस समय और आज में महान अंतर हो गया है। उस दिन आप पराधीन वेतन-ग्राही थे, आज एक स्वाधीन सिपाही हैं। उस दिन आप शाही प्रसन्नता के अभिलाषी थे, आज उसके समान स्वाधीन हैं। उस दिन आपको सुख-सम्पत्ति की आकांक्षा थी, आज आन की धुन है। उस समय आप नीचे जा रहे थे, आज आप उठ रहे हैं।’

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