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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘नहीं।’

‘अच्छा जो ठहराया जाय उससे एक आना ज्यादा देना।’

मुझसे ‘अच्छा कहकर सिक्ख से उसने पूछा–

‘बाबा तुम यहाँ रहोगे?’

‘ना, बेटी।’

‘क्यों बाबा?’

‘घर तो अपना नहीं है। घर क्या छोड़ा जाता है? फिर बच्चे को कब से नहीं देखा। बीस साल हो गये।’

‘बाबा क्या पता वह मिलेगा ही। बीस बरस थोड़े नहीं होते।’

‘हाँ, क्या पता! पर मैंने अपने हिस्से की काफी आफत भुगत ली है। परमात्मा अब इस बुढ़ापे में उसका बचा-खुचा नहीं छीन लेंगे। मुझे पूरा भरोसा है वह मुझे जरूर मिलेगा, हाँ उसकी माँ तो शायद ही मिले।’

ललिता के ढंग से जान पड़ा, वह इतनी थोड़ी-सी बात करके संतुष्ट नहीं हुई वह उस बुढ्ढे से और बात करना चाहती है। पर मुझे तो समय वृथा नहीं गँवाना था। मैं फिर एक आना ज्यादा देने की हिदायत देकर चला आया।

यह बुड्ढा तो धीरे-धीरे मेरे घर से हिलने लगा। ज्यादातर घर पर दीखता। किसी न किसी चीज को ठीक करता उसने घर के सारे बक्शों को पॉलिश से चमकाकर नया बना दिया। नयी-नयी चीजें भी बहुत-सी बना दीं। वह ललिता का विशेष कृपापात्र था, और ललिता उसकी विशेष कृतज्ञता पात्र थी। उसने एक बड़ा सिंगारदान ललिता को बनाकर ललिता को दिया और कैश-बक्श मेरे लिए हैट-स्टैंड, खूँटियाँ वगैरह चीजें बना कर दीं। मैंने भी समझा कि वह अपने लिए इस तरह ख्वामख्वाह मजदूरी बढ़ा लेता है, चलो इसमें गरीब का भला ही है।

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