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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


लेकिन हर एक चीज की हद होनी चाहिए। गरीब की भलाई की जहाँ तक बात है, वहाँ तक तो ठीक। पर उनसे दोस्ती–सी पैदा कर लेना, उसको अपना ही बना बैठना,–यह भी कोई बुद्धिमानी है! पर अल्हड़ ललिता यह कुछ नहीं समझती। उसका तो अब ज्यादा समय उस बुड्ढे से ही छोटी-मोटी चीजें बनवाने में, उससे बातें करने में बीतता है।

मैं यह भी देखता हूँ कि बुड्ढा दीनता और उम्र के अतिरिक्त और किसी बात में बुड्ढा नहीं है। बदन से खूब हट्टा-कट्टा है। खूब लम्बा-चौड़ा है। दाढ़ी-मूछों से भरा हुआ उसका चेहरा एक प्रकार की शक्ति से भरा है। यह मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैंने उसे एक दिन बुलाकर, कहा–‘बुड्ढे, अब गाँव कब जाओगे?’

‘गाँव? –कैसे जाऊँगा जी, गाँव?’

‘क्यों?’

‘जी।’

‘देखो, थोड़ी-बहुत मदद की जरूरत हो, मैं कर दूँगा। पर तुम्हें अब अपने बच्चे के पास जाना चाहिए। और यहाँ जब काम होगा बुला लूँगा, तुम्हारा फ़िजूल आना-जाना ठीक नहीं।’

बुड्ढा इस पर कुछ नहीं बोला–मानो उसे स्वीकार है।

उसके बाद वह घर पर बहुत कम दीखता। एक बार आया तब मैंने जवाब-तलब किया–
‘बुड्ढे! क्यों आये? –क्या काम है?’

‘जी, बिटिया ने बुलाया था।’

‘बिटिया, –कौन बिटिया?’

‘वही, आपकी।’

‘देखो बुड्ढे, गुस्ताखी अच्छी नहीं होती।’

इस पर बुड्ढा बहुत-कुछ गिड़गिड़ाया, ‘गुस्ताखी नहीं, गुस्ताखी’ और उसने बहुत-सी शपथें खाकर विश्वास दिलाया कि वह कभी अपने हमारे बराबर नहीं समझ सकता, ‘आप तो राजा हो, हम किंकर नाचीज हैं’, और वह तो मालकिन हैं, साक्षात् राजरानी हैं आदि–और अन्त में धरती पर माथा टेककर वह चला गया।

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