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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


पानी पीकर बोधा बोला–कँपनी छूट रही है। रोंम-रोंम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।

‘अच्छा मेरी जरसी पहन लो।’

‘और तुम?’

मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गरमी लगती है। पसीना आ रहा है।’

‘ना, मैं नहीं पहनता, चार दिन से तुम मेरे लिये–’

‘हाँ, याद आयी। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आयी है। विलायत से मेम बुन-बुनकर भेज रही हैं। गुरु उनका भला करें।’ यों कह कर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा।

‘सच कहते हो?’

‘और नहीं झूठ?’ यों कहकर नाहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता पहनकर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।

आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज़ आयी–सूबेदार हजारासिंह।

‘कौन? लपटन साहब? हुकुम हुजूर!’ कहकर सूबेदार तनकर फ़ौजी सलाम करके सामने हुआ।

‘देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं है। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन चार घुमाव हैं जहाँ मोड़ है, वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम वहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मिलो। ख़ंदक़ छीनकर वहीं जब तक दूसरा हुक्म न मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।’

‘जो हुक्म।’

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