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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


उसके सरदार, जिन्होंने उसके साथ बहुत से अच्छे-बुरे दिन देखे थे, उसकी चारपाई के इर्द-गिर्द शोक में डूबे और आँखों में आँसू भरे खड़े थे। राणा की टकटकी दीवार की ओर लगी हुई थी और कोई खयाल उसे बेचैन करता हुआ मालूम होता था।

एक सरदार ने कहा–महाराज, राम नाम लीजिए। राणा ने मृत्यु-यत्रणा से कराहकर कहा–‘मेरी आत्मा को तब चैन होगा कि तुम लोग अपनी-अपनी तलवारें हाथ में लेकर कसम खाओ कि हमारा यह प्यारा देश तुर्कों के कब्जे में न जायगा। तुम्हारी रगों में जब तक एक बूँद भी रक्त रहेगा, तुम उसे तुर्कों से बचाते रहोगे। और बेटा अमरसिंह, तुमसे विशेष विनती है कि अपने बाप-दादों के नाम पर धब्बा न लगाना और स्वाधीनता को सदा प्राण से अधिक प्रिय मानते रहना। मुझे डर है कि कहीं विलासिता और सुख की कामना तुम्हारे हृदय को अपने वश में न कर ले, और तुम मेवाड़ की उस स्वाधीनता को हाथ से खो दो, जिसके लिए मेवाड़ के वीरों ने अपना रक्त बहाया।’

संपूर्ण उपस्थित सरदारों ने एक स्वर से शपथ की कि जब तक हमारे दम-में-दम है, हम मेवाड़ की स्वाधीनता को कुदृष्टि से बचाते रहेंगे।

प्रताप को इतमीनान हो गया और सरदारों को रोता-बिलखता छोड़, उसकी आत्मा ने पार्थिव चोले को त्याग दिया। मानो मौत ने उसे अपने सरदारों से यह कसम लेने की मुहलत दे रखी थी।

इस प्रकार उस सिंह-विक्रम राजपूत के जीवन का अवसान हुआ, जिसकी विजय की गाथाएँ और विपदा की कहानियाँ मेवाड़ के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं। जो इस योग्य है कि उसके नाम के मंदिर गाँव-गाँव, नगर-नगर में निर्माण किए जायँ और उनमें स्वाधीनता देवी की प्रतिष्ठा तथा पूजा की जाय। लोग जब उन मन्दिरों में जाएँ, तो स्वाधीनता का नाम लेते हुए जायँ और इस राजपूत की जीवन कथा से सच्ची आज़ादी का सबक सीखें।

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