लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


मन में प्रश्न उठता है कि अकबर ने राणा को क्यों इतमीनान से बैठने दिया? उसकी शक्ति अब पहले से बहुत अधिक हो गई थी, उसके साम्राज्य की सीमाएँ दिन-दिन अधिक विस्तृत होती जाती थीं। जिधर रुख करता, उधर ही विजय हाथ बाँधे खड़ी रहती। सरदारों में एक-से-एक प्रौढ़ अनुभव वाले रणकुशल योद्धा विद्यमान थे। ऐसी अवस्था में वह राणा की इन ज्यादतियों को क्यों चुपचाप देखता रहा? शायद इसका कारण यह हो कि वह इन दिनों दूसरे देश जीतने में उलझा हुआ था, या यह कि अपने दरबार को राणा से सहानुभूति रखनेवाला पाकर उसे फिर छेड़ने की हिम्मत न हुई हो। जो हो, उसने निश्चय कर लिया कि राणा को उन पहाड़ियों में चुपचाप पड़ा रहने दिया जाय। पर साथ ही निगाह रखी जाय कि वह मैदान की ओर न बढ़ सके।

राणा की जगह कोई और आदमी होता, तो इस शांति और आराम को हजार गनीमत समझता और इतने कष्ट झेलने के बाद इस विश्रांति-लाभ को ईश्वरीय सहायता समझता। पर महत्वाकांक्षी राणा को चैन कहाँ? जब तक वह अकबर से लोहा ले रहा था, जब तक अकबर की सेना उसकी खोज में जंगल-पहाड़ से सिर टकराती फिरती थी, तब तक राणा के हृदय को संतोष न था। जब तक यह चिंता अकबर के प्राणों को जला रही थी, तब तक राणा के दिल में ठंडक थी। वह सच्चा राजपूत था। शत्रु के क्रोध, कोप, घृणा यहाँ तक कि तिरस्कार भाव को भी सहन कर सकता था, पर उसका दिल भी इसको बर्दाश्त न कर सकता था कि कोई उसे दया-दृष्टि से देखे या उस पर तरस खाय। उसका स्वाभिमानी हृदय इसे कभी सहन न कर सकता था।

जो हृदय अपनी जाति की स्वाधीनता पर बिका हो, उसे एक पहाड़ी में बंद रहकर राज्य करने से क्या संतोष हो सकता था? वह कभी-कभी पहाड़ियों से बाहर निकलकर उदयपुर और चित्तौड़ की ओर आकांक्षा भरी दृष्टि से देखता कि हाय, अब यह फिर मेरे अधिकार में न आएँगे! क्या यह पहाड़ियाँ ही मेरी आशाओं की सीमा हैं? अक्सर वह अकेले और पैदल ही चल देता और पहाड़ के दर्रों में घंटों बैठकर सोचा करता। उसके हृदय में उस समय स्वाधीनता की उमंग का समुद्र ठाठें मारने लगता, आँखें सुर्ख हो जातीं, रगें फड़कने लगतीं, कल्पना की दृष्टि से वह शत्रु को आते देखता और फिर अपना तेगा सँभालकर लड़ने को तैयार हो जाता। हाँ, मैं बप्पा रावल का वंशधर हूँ। राणा साँगा मेरा दादा था, मैं उसका पोता हूँ। वीर जगमल मेरा एक सरदार था। देखो तो मैं यह केसरिया झंडा कहाँ-कहाँ गाड़ता हूँ! पृथ्वीराज के सिंहासन पर न गाड़ूं, तो मेरा जीना अकारथ है।

यह विचार, यह मंसूबे, यह अंतर्ज्वार, यह जोशे-आजादी सदा उसके प्राणों को जलाती रही। और अन्त  में इसी अंतर की आग ने उसे समय से पहले ही मृत्यु-शय्या पर सुला दिया। उसके गैंडे के-से बलिष्ठ अंग-प्रत्यंग और सिंह का-सा निडर हृदय भी इस अग्नि की जलन को अधिक दिन सह न सके। अंतिम क्षण तक देश और जाति की स्वाधीनता का ध्यान उसे बना रहा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book