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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


मुसलमानों में बहुत पुराने समय से अनिवार्य भरती (कांस्क्रिप्शन) अर्थात् आवश्यकता के समय सैनिक रूप से काम करने की बाध्यता चली आ रही है। इस कारण मुस्तसना होने का अधिकार एक बहुत बड़ा हक़ था। और संभव होता तो शायद बहुत-से मुसलमान भी उनसे लाभ उठाते; पर चूँकि अकबर का उद्देश्य विजेता और विजित का भेद मिटाकर अपने शासन को स्वदेशी भारत की राष्ट्रीय सरकार बनाना था, जिसकी सच्ची उन्नति के लिए हिंदुओं की प्रखर बुद्धि और शौर्य-साहस की वैसी ही आवश्यकता थी, जैसी मुसलमानों की कार्य-कुशलता और वीरता की, और देश की शांति के रक्षण-पोषण में हिंदु भी उसी प्रकार भाग लेने के अधिकारी थे, जिस प्रकार मुसलमान, इसलिए विजित और विजेता में जिज़िया के द्वारा जो भेद स्थापित किया गया था, वह वास्तव में बाक़ी न रहा था और जिज़िया वस्तुतः उत्पीड़क कर हो गया था। इसलिए उसने उसको उठाकर प्रजा के सब वर्गों की समानता की घोषणा की। यद्यपि अकबर ने हमारी उदार सरकार की तरह इस बात की घोषणा नहीं की थी कि राज्यकर्म में जाति, रंग या धर्म का कोई भेदभाव न रखा जायगा; पर व्यवहारतः वह नियुक्तियों में, चाहे वह शासन-विभाग की हों, चाहे सेना या अर्थ-विभाग की, अब्दुल्ला और रामदास में कोई भेद न करता था। यहाँ तक कि कोई पद भी ऐसा न था, जो हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए समान रूप से खुला हुआ न हो।

उसकी निष्पक्षता का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि मानसिंह को ख़ास सूबे काबुल की गर्वनरी का गौरव दिया, जहाँ की आबादी सोलहों आने मुसलमान थी। इसी प्रकार फ़ौजी चढ़ाइयों का सेनापतित्व अगर खान-ख़ाना और ख़ाँ आज़म को सौंपा जाता था, तो भगवानदास और मानसिंह का दरजा भी उनसे कम न होता था, और शासन तथा अर्थ-प्रबंध के मामलों में अगर मुज़फ्फर खाँ की सलाह से काम किया जाता था, तो टोडरमल की सम्मति उससे भी अधिक आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। इसी तरह फौज़ी और अबुलफ़ज़ल यदि दरबार की शोभा थे, तो बीरबल भी अकबर के राजमुकुट का एक अमूल्य रत्न था। यही वह वस्तु थी, जिसने राजपूतों और ब्राह्मणों को राज्य का इतना शुभचिंतक बना दिया था। उन्हें अपने बाग़ी देश वासियों और सधर्मियों के मुकाबले लड़ने और जान देने में भी आगा-पीछा न होता था।

जान पड़ता है कि अकबर को रात-दिन यही चिंता रहती थी कि किसी तरह भारत की विभिन्न जातियों-संप्रदायों को एक में मिलाकर शक्तिशाली स्वदेशी राज्य की स्थापना करे। इसीलिए उसने पुराने राजपूत घराने से नाता जोड़ने की रीति चलायी, जिससे राजकुल को वे गैर की जगह अपना समझने लगें। इसी उद्देश्य से सन् २३ जुल्स में फ़तहपुर सीकरी के ‘इबादतख़ाने’ (उपासनागृह) में उन धार्मिक शास्त्रार्थों की आयोजना की, जिनमें प्रत्येक जाति तथा धर्म के विद्वान सम्मिलित होते थे और बिना किसी भय-संकोच के अपने-अपने एलफ़ान्स्टन, ब्राकमैन आदि अंगरेज़ ऐतिहासिकों ने इस सम्मेलन को बहुत महत्त्व दिया है, पर वस्तुतः यह कोई नई बात नहीं थी। चारों आरम्भिक खलीफ़ों के अतिरिक्त उमैया और अब्बासी घरानों के खलीफ़ों का भी धार्मिक विषयों में नेतृत्व–इमाम–का पद सर्व-स्वीकृत था। इसी प्रकार तुर्कों में शैखुल इसलाम अब तक मुजतहिद (धर्माध्यक्ष) का दरजा रखते हैं और शिया लोगों में ऐसा कोई समय नहीं होता, जब दो-चार मुजतहिद मौजूद न हों।

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