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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


धर्म के तत्त्वों की व्याख्या करते थे। इन्हीं शास्त्रार्थों और ज्ञानचर्चाओं का यह फल हुआ कि अकबर जो बिलकुल अपढ़ था, विचारों की उस ऊँचाई पर पहुँच गया, जो केवल दार्शनिकों के लिए सुलभ है और जहाँ से सभी धर्मों के सिद्धांत आध्यात्मिकता का रंग लिये हुए आते हैं। इसका एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि जो लोग इनमें सम्मिलित होते थे, उनकी दृष्टि अधिक व्यापक हो जाने से धर्मगत संकीर्णता और कट्टरपन अपने-आप घट गया।

उस काल में इसलाम धर्म की शताब्दियों की गतानुगतिकता और धर्माचार्यों पांडित्य-प्रदर्शन से विचित्र दशा हो रही थी। सरलता जो इसलाम की विशेषता है, नाम को बाकी न रही थी, और धर्म अन्धविश्वासों और गतानुगतिक विचारों की गठरी बन रहा था। औलियों और मुल्लाओं की हालत इससे भी गयी-बीती थी। यद्यपि ये लोग मक्कारी का लबादा हर समय ओढ़े रहते थे, पर पद और प्रतिष्ठा के लिए धर्म के विधि-निषेधों को बच्चों का खेल समझते थे, और जैसा मौक़ा देखते, वैसा ही फ़तवा तैयार कर देते थे। इस संबंध में मखदूमुल-मुल्क और सदरजहाँ के कारनामे और ज़माना-साज़ी जानने योग्य है। इन्हीं कारणों से अकबर का वह आरम्भिक धर्मोत्साह, जिससे प्रेरित हो, वह पैदल अजमेर-शरीफ की यात्रा, या दिन-रात ‘या मुईन’ का जप किया करता था, ठंडा होता गया। और वह यह नतीजा निकालने को लाचार हुआ कि जब तक अंधानुकरण के उस मजबूत जाल से, जिसने मनुष्यों में बुद्धि विवेक को क़ैद कर रखा है, छुटकारा न मिले, किसी स्थायी सुधार की आशा नहीं हो सकती। अतः उसने सन् जुल्स के २४ वें साल में उलेमा से इमाम-आदिल अर्थात् प्रधान धर्म निर्णायक की सनद हासिल की और दीने इलाही की नींव डाली, जिसका दरवाज़ा सब धर्मवालों के लिए समान रूप से खुला हुआ था। इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य एक अपढ़ तुर्क की सामर्थ्य और अधिकार के बाहर की बात थी, और इस कारण अबुलफ़ज़ल जैसे प्रकांड पंडित को अपना सारा बुद्धिबल लगा देने पर भी जैसी सफलता चाहिए थी, वैसी न हुई; बल्कि एक खेल-तमाशा बनकर रह गया। पर इसका इतना प्रभाव अवश्य हुआ कि धर्मगत असहिष्णुता की बुराई, जो देशवासियों को पारस्परिक वैमनस्य के कारण सिर न उठाने देती थी, एकदम दूर हो गई और संकीर्णता की जगह लोगों के विचारों में उदारता आ गई।

अकबर यद्यपि स्वयं कुछ पढ़ा-लिखा न था, पर वह भली भाँति जानता था कि धार्मिक द्वेष का कारण अज्ञान है। और उसे हटाने तथा अधीन जातियों पर ठीक प्रकार से शासन करने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि उनके इतिहास, साहित्य और रीति-व्यवहार की अधिक जानकारी प्राप्त की जाए। इसी विचार से बग़दाद के ख़लीफ़ो की तरह उसने भी एक भाषांतर-विभाग स्थापित कर बीसियों संस्कृत ग्रंथों का उलथा करा डाला। दाढ़ी मुँडाने, गोमांस और लहसुन-प्याज न खाने, और ग़मी के मौक़ों पर भद्र कराने का उद्देश्य भी यही था कि शासक और शासित के विचारों का भेद मिट जाए। अकबर भली-भाँति जानता था कि वह मुसलमान तो है ही, इसलिए मेल एकता स्थापित करने के लिए यदि उसको आवश्यकता है, तो हिंदुओं की रीति-भाँति ग्रहण करने की है।

जातियों और धर्मों का बिलगाव-विरोध दूर करने के बाद अकबर ने उन सुधारों की ओर ध्यान दिया, जो मानव-समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। समाज-संघटन का आधार विवाह-व्यवस्था है, और इस संबंध में आये दिन झगड़े पैदा होते रहते हैं, जो कुल-कुटुम्ब का नाश कर देते या स्वयं पति-पत्नी के जीवन को मिट्टी में मिला देते हैं। और आरम्भ में ही पूरी सावधानी न बरती जाय, तो इनका असर वर्तमान पीढ़ी से लगाकर आनेवाली पीढ़ी तक पहुँचता है। अकबर ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लेकर निश्चय किया कि निकट सम्बन्धियों में ब्याह न हुआ करे। इसी प्रकार किसी का ब्याह बालिग होने के पहले या स्त्री उम्र में पुरुष से १२ साल से अधिक बड़ी हो, तो भी न हुआ करे। बहुविवाह भी अनुचित बताया गया और इन बातों की निगरानी के लिए यह नियम बना दिया गया कि सब ब्याह सरकारी दफ्तर में लिखे जाया करें।

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