लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

36 पाठक हैं

अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।


वहब– मेरी क़ैफ़ियत इससे ठीक उल्टी है। मेरे दिल में एक नई कूबत आ गई है, मुझे खयाल होता है अब दुनिया की कोई फ़िक्र, कोई तग़ीव, कोई आरजू मेरे दिल पर फ़तह नहीं पा सकती। ऐसी कोई ताकत नहीं है, जिसका मैं मुकाबला न कर सकूं। तुमने मेरे दिल की कूबत सौगुनी कर दी। यहां तक अब मुझे मौत का भी गम नहीं। मुहब्बत ने मुझे दिलेर, बैखौफ़, मजबूत बना दिया है, मुझे तो ऐसा गुमान होता है कि मुहब्बत कूबते-दिल की कीमिया है।

नसीमा– वहब, इन बातों से वहशत हो रही है, शायद हमारी तबाही के सामान हो रहे हैं। वहब, मैं तुम्हें न जाने दूंगी, कलाम पाक की क़सम, कहीं न जाने दूंगी। मुझे इसकी फिक्र नहीं कि कौन खलीफ़ा होता है और कौन अमीर। मुझे माल व ज़र की, इलाके व जागीर की मुतलक़ परवा नहीं। मैं तुम्हें चाहती हूं, सिर्फ तुम्हें।

[कमर का प्रवेश]

कमर– वहब, देख, दरवाजे पर जालिम जियाद के सिपाही क्या गजब कर रहे हैं। तेरे वालिद को गिरफ्तार कर लिया है और जामा मसजिद की तरफ खींचे लिए जाते हैं।

नसीमा– हाय सितम, इसीलिए तो मुझे वहसत हो रही थी।

[वहब उठ खड़ा होता है। नसीमा उसका हाथ पकड़ लेती है।]

वहब– नसीमा, मैं अभी लौटा आता हूं, तुम घबराओ नहीं।

नसीमा– नहीं-नहीं तुम यहां मुझे जिंदा छोड़कर नहीं जा सकते। मैं जियाद को जानती हूं। तुमको भी जानती हूं। जियाद के सामने जाकर फिर तुम नहीं लौट सकते।

कमर– बेटा, अगर नसीमा तुझे नहीं जाने देती, तो मत जा। मगर याद रख, तेरे चेहरे पर हमेशा के लिए स्याही का दाग़ लग जायेगा। खुद जाती हूं। नसीमा, शायद हमारी-तुम्हारी फिर मुलाकात न हो, यह आखिरी मुलाकात है। रुखसत। वहब, घर-बार तुझे सौंपा खुदा तुझे नेकी की तौफ़ीक दे, तेरी उम्र दराज़ हो।

वहब– अम्मा, मैं भी चलता हूं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book