लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर चला गया और, सकीना हाथों में साड़ियाँ लिए द्वार पर खड़ी अन्धकार में ताकती रही।

सहसा बुढ़िया ने पुकारा–‘अब आकर बैठेगी कि वहीं दरवाजे पर खड़ी रहेगी। मुँह में कालिख तो लगा दी। अब और क्या करने पर लगी हुई है?’

सकीना ने क्रोध भरी आँखों से देखकर कहा– ‘अम्माँ अकबर से डरो, क्यों किसी भले आदमी पर तोहमत लगाती हो। तुम्हें ऐसी बात मुँह से निकालते शर्म भी नहीं आती। उनकी नेकियों का यह बदला दिया है तुमने। तुम दुनिया में चिराग लेकर ढूँढ़ आओ, ऐसा शरीफ़ तुम्हें न मिलेगा।’

पठानिन ने डाँट बताई-‘चुप रह बेहया कहीं की! शर्माती नहीं, ऊपर से ज़बान चलाती है। आज घर में कोई मर्द होता, तो सिर काट लेता। मैं जाकर लाला से कहती हूँ। जब तक इस पाजी को शहर से न निकाल दूँगी, मेरा कलेजा न ठण्डा होगा। मैं उसकी ज़िन्दगी गारत कर दूँगी।’

सकीना ने निश्शंक भाव से कहा–‘अगर उनकी ज़िन्दगी गारत हुई, तो मेरी भी ग़ारत होगी। इतना समझ लो।’

बुढ़िया ने सकीना का हाथ पकड़कर इतने ज़ोर से अपने तरफ़ घसीटा कि वह गिरते-गिरते बची और उसी दम घर से बाहर निकलकर द्वार की ज़ंजीर बन्द कर दी।

सकीना बार-बार पुकारती रही, पर बुढ़िया ने पीछे फिरकर भी न देखा। वह बेजान बुढ़िया, जिसे एक-एक पग रखना दूभर था, इस वक़्त आवेश में दौड़ी लाला समरकान्त के पास चली जा रही थी।

१८

अमरकान्त गली के बाहर निकलकर सड़क पर आया। कहाँ जाए? पठानिन इसी वक़्त दादा के पास जायेगी। ज़रूर जायेगी। कितनी भंयकर स्थिति होगी? कैसा कुहराम मचेगा? कोई धर्म के नाम को रोयेगा, कोई मर्यादा के नाम को रोयेगा। दगा, फ़रेब, जाल विश्वासघात, हराम की कमाई सब मुआफ़ हो सकती है। नहीं, उसकी सराहना होती है। ऐसे महानुभाव समाज के मुखिया बने हुए हैं। वेश्यागामियों और व्यभिचारियों के आगे लोग माथा टेकते हैं। लेकिन शुद्ध हृदय और निष्कपट भाव से प्रेम करना निन्द्य है, अक्षम्य है। नहीं, अमर घर नहीं जा सकता। घर का द्वार उसके लिए बन्द है। और वह घर था ही कब? केवल भोजन और विश्राम का स्थान था। उससे किसे प्रेम है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book