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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘औरतों को भी बेवफ़ा मरदों पर इतना ही क्रोध आता है।’

‘औरतों और मरदों के मिज़ाज़ में, जिस्म की बनावट में, दिल के जज़बात के फ़र्क है औरत एक ही की होकर रहने के लिए बनाई गयी है। मर्द आज़ाद रहने के लिए बनाया जाता है।’

‘यह मर्दों की ख़ुदगरज़ी है।’

‘जी नहीं, यह हैवानी ज़िन्दगी का उसूल है।’

बहस में शाख़ें निकलती गयीं। विवाह का प्रश्न आया, फिर बेकारी की समस्या पर विचार होने लगा। फिर भोजन आ गया। दोनों खाने लगे।

अभी दो-चार कौर ही खाये होंगे कि दरबान ने लाला समरकान्त के आने की ख़बर दी। अमरकान्त झट मेज़ पर से उठ खड़ा हुआ, कुल्ला किया, अपने प्लेट मेज़ के नीचे छिपाकर रख दिये और बोला– ‘उन्हें कैसे मेरी ख़बर मिल गयी? अभी तो इतनी देर भी नहीं हुई। ज़रूर बुढ़िया ने आग लगा दी।’

सलीम मुसकरा रहा था।

अमर ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा–‘यह तुम्हारी शरारत मालूम होती है। इसीलिए तुम मुझे यहाँ लाए थे? आख़िर क्या नतीजा होगा? मुफ़्त की ज़िल्लत होगी मेरी। मुझे ज़लील कराने से तुम्हें कुछ मिल जायेगा? मैं इसे दोस्ती नहीं, दुश्मनी कहता हूँ।

ताँगा द्वार पर रुका और लाला समरकान्त ने कमरे में क़दम रखा।

सलीम इस तरह लालाजी की ओर देख रहा था, जैसे पूछ रहा हो, मैं यहाँ रहूँ या जाऊँ। लालाजी ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा–तुम क्यों खड़े हो बेटा, बैठ जाओ। हमारी और हाफ़िज जी की पुरानी दोस्ती है। उसी तरह तुम और अमर भाई-भाई हो। तुमसे क्या परदा है? मैं सब सुन चुका हूँ लल्लू। बुढ़िया रोती हुई आयी थी। मैंने बुरी तरह फटकारा। मैंने कह दिया, मुझे तेरी बात का विश्वास नहीं है। जिसकी स्त्री लक्ष्मी का रूप हो, वह क्यों चुड़ैलों के पीछे प्राण देता फिरेगा; लेकिन अगर कोई बात ही है, तो उसमें घबड़ाने की कोई बात नहीं बेटा। भूल-चूक सभी से होती है। बुढ़िया को दो-चार सौ रुपये दे दिये जायेंगे। लड़की की किसी भले घर में शादी हो जायेगी। चलो झगड़ा पाक हुआ। तुम्हें घर से भागने और शहर में ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रूरत है। मेरी परवाह मत करो; लेकिन तुम्हें ईश्वर ने बाल-बच्चे दिए हैं। सोचो, तुम्हारे चले जाने से कितने प्राणी अनाथ हो जायेंगे। स्त्री तो स्त्री ही है, बहन है, वह रो-रोकर मर जायेगी। रेणुका देवी हैं, वह भी तुम्हीं लोगों के प्रेम से यहाँ पड़ी हुई हैं। जब तुम्हीं न होंगे, तो वह सुखदा को लेकर चली जायँगी, मेरा घर चौपट हो जाएगा। मैं घर में अकेला भूत की तरह पड़ा रहूँगा। बेटा सलीम मैं कुछ बेजा तो नहीं कह रहा हूँ? जो कुछ हो गया, सो हो गया। आगे के लिए एहतियात रखो। तुम ख़ुद समझदार हो, मैं तुम्हें क्या समझाऊँ। मन को कर्त्तव्य की डोरी से बाँधना पड़ता है, नहीं तो उसकी चंचलता आदमी को न जाने कहाँ लिये-लिये फिरे। तुम्हें भगवान् ने सब-कुछ दिया है। कुछ घर का काम देखो, कुछ बाहर का काम देखो। चार दिन की ज़िन्दगी है, इसे हँस-खेलकर काट देना चाहिए। मारे-मारे फिरने से क्या फ़ायदा।’

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