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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


बालक सिर हिलाकर बोला–‘कभी नहीं। वह तो हमें खेलाती हैं। दुरजन को नहीं खेलाती; वह बड़ा बदमाश है।’

अमर ने मुस्कराकर पूछा–‘कहाँ पढ़ने जाते हो?’

बालक के नीचे का ओंठ सिकोड़कर कहा–‘कहाँ जायँ, हमें कौन पढ़ाये? मदरसे में कोई जाने तो देता नहीं। एक दिन दादा हम दोनों लोगों को लेकर गये थे। पण्डितजी ने नाम लिख लिया; पर हमें सबसे अलग बैठाते थे; सब लड़के हमें ‘चमार-चमार’ कहकर चिढ़ाते थे। दादा ने नाम कटा लिया।’

अमर की इच्छा हुई चौधरी से जाकर मिले। कोई स्वाभिमानी आदमी मालूम होता है–‘तुम्हारे दादा क्या कर रहे हैं?’

बालक ने लालटेन से खेलते हुए कहा–‘बोतल लिए बैठे हैं। भुने चने धरे हैं। बस अभी बक-झक करेंगे; खूब चिल्लायेंगे, किसी को मारेंगे, किसी को गालियाँ देंगे। दिनभर कुछ नहीं बोलते। जहाँ बोतल चढ़ायी कि बक चले।’

अमर ने इस वक़्त उनसे मिलना उचित न समझा।

सलोनी ने पुकारा–‘भैया, रोटी तैयार है, आओ गरम-गरम खा लो।’

अमरकान्त ने हाथ-मुँह धोया और अन्दर पहुँचा। पीतल की थाली में रोटियाँ थीं। पथरी में दही, पत्ते में अचार, लोटे में पानी रखा हुआ था। थाली पर बैठकर बोला–‘तुम भी क्यों नहीं खातीं?’

‘तुम खा लो बेटा, मैं फिर खा लूँगी।’

‘नहीं, मैं यह न मानूँगा। मेरे साथ खाओ!’

‘रसोई जूठी हो जायेगी कि नहीं?’

‘हो जाने दो। मैं ही तो खानेवाला हूँ।’

‘रसोई में भगवान् रहते हैं। उसे जूठी न करना चाहिए।’

‘तो मैं भी बैठा रहूँगा।’

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