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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर ने आश्चर्य से कहा–‘ऐं! तुममे से रोज़ कोई हाथ-मुँह नहीं धोता।’

सभी ने एक-दूसरे की ओर देखा। दरी वाले लड़के ने हाथ उठा दिया। उसे देखते ही दूसरों ने भी हाथ उठा दिए।

अमर ने फिर पूछा–‘तुममें से कौन-कौन लड़के रोज़ नहाते हैं? हाथ उठायें।’

पहले किसी ने हाथ न उठाया। फिर एक-एक करके सबने हाथ उठा दिये। इसलिए नहीं कि सभी रोज़ नहाते थे, बल्कि इसलिए कि वह दूसरों से पीछे न रहें।

सलोनी खड़ी थी। बोली–‘तू तो महीने भर में नहीं नहाता रे जंगलिया! तू क्यों हाथ उठाये हुए है?’

जंगलिया ने अपमानित होकर कहा–तो गूदड़ ही कौन रोज़ नहाता है। भुलई, पुन्नू, घसीटे कोई भी तो नहीं नहाता।’

सभी एक-दूसरे की क़लई खोलने लगे।

अमर ने डाँटा–‘अच्छा, आपस में लड़ो मत। मैं एक बात पूछता हूँ, उसका जवाब दो। रोज़ मुँह-हाथ धोना अच्छी बात है या नहीं?’

सभी ने कहा– ‘अच्छी बात है।’

‘और नहाना?’

सभी ने कहा– ‘अच्छी बात है।’

‘मुँह से कहते हो या दिल से?’

‘दिल से।’

‘बस जाओ। मैं दस-पाँच दिन में फिर आऊँगा और देखूँगा कि किन लड़कों ने झूठा वादा किया था, किसने सच्चा।’

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