उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
किसी भड़के हुए जानवर को बहुत से आदमी घेरने लगते हैं, तो वह और भी भड़क जाता है। सलोनी समझ रही थी, यह सब-के-सब मिलकर मुझे लुटवाना चाहते हैं। एक बार नाहीं करके, फिर हाँ न की। वेग से चल खड़ी हुई।
पयाग बोला–‘चुड़ैल है, चुड़ैल!’
अमर ने खिसियाकर कहा–‘तुमने नाहक़ उससे कहा दादा। मुझे क्या, यह गाँव न सही और गाँव सही।’
मुन्नी का चेहरा फ़क हो गया।
गूदड़ बोले–‘नहीं भैया, कैसी बातें करते हो तुम। मेरे साझीदार बनकर रहो। महन्तजी से कहकर दो-चार बीघे का और बन्दोबस्त करा दूँगा। तुम्हारी झोंपड़ी अलग बन जायेगी। खाने-पीने की कोई बात नहीं। एक भला आदमी तो गाँव में हो जायेगा। नहीं कभी एक चपरासी गाँव में आ गया, तो सबकी साँस तले–ऊपर होने लगती है।’
आधा-घण्टे में सलोनी फिर लौटी और चौधरी से बोली–तुम्हीं मेरे खेत क्यों बटाई पर नहीं ले लेते?’
चौधरी ने घुड़ककर कहा–‘मुझे नहीं चाहिए। धरे रहे अपने खेत।’
सलोनी ने अमर से अपील की–‘भैया, तुम्हीं सोचो, मैंने कुछ बेजा कहा? बेजाने-सुने किसी को कोई अपनी चीज़ दे देता है?’
अमर ने सांत्वना दी–‘नहीं काकी, तुमने बहुत ठीक किया। इस तरह विश्वास कर लेने से धोखा हो जाता है।’
सलोनी को कुछ ढांढ़स हुआ–‘तुमसे तो बेटा मेरी रात भर की जान-पहचान है न? जिसके पास मेरे खेत आजकल हैं, वह तो मेरा भाई-बन्द है। उससे छीनकर तुम्हें दे दूँ, तो वह अपने मन में क्या कहेगा? सोचो, अगर में अनुचित कहती हूँ, तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। वह मेरे साथ बेईमानी करता है, यह जानती हूँ; पर है तो अपना ही हाड़-माँस। उसके मुँह की रोटी छीनकर तुम्हें दे दूँ तो तुम मुझे भला कहोगे, बोलो?’
सलोनी ने यह दलील ख़ुद सोच निकाली थी, या किसी और ने सुझा दी थी; पर इसने गूदड़ को लाजवाब कर दिया।
३
दो महीने बीत गये।
पूस की ठण्डी रात काली कमली औढ़ पड़ी हुई थी। ऊँचा पर्वत किसी विशाल महत्त्वाकांक्षा की भाँति, तारिकाओं का मुकुट पहने खड़ा था। झोंपड़ियाँ जैसे उसकी छोटी-छोटी अभिलाषाएँ थीं, जिन्हें वह ठुकरा चुका था।
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