लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘ऊँह! समझाने से माने जाते हैं, और मेरे समझाने से।’

अमरकान्त की वंशगत वैष्णव, वृत्ति इस घृणित, पिशाच-कर्म से जैसे मतलाने लगी। उसे सचमुच मतली हो आयी। उसने छूत-छात और भेदभाव को मन से निकाल डाला था, पर अखाद्य से वही पुरानी घृणा बनी हुई थी। और वह दस-ग्यारह महीने से इन्हीं मुरदाखोरों के घर भोजन कर रहा है।

‘आज मैं खाना नहीं खाऊँगा मुन्नी।’

‘मैं तुम्हारा भोजन अलग पका दूँगी।’

‘नहीं मुन्नी। जिस घर में वह चीज़ पकेगी, उस घर में मुझसे न खाया जायेगा।’

सहसा शोर सुनकर अमर ने आँखें उठायीं, तो देखा कि पन्द्रह-बीस आदमी बाँस की बल्लियों पर उस मृतक गायको लादे चले आ रहे हैं। सामने कई लड़के उछलते-कूदते, तालियाँ बजाते चले आते थे।

कितना वीभत्स दृश्य था। अमर वहाँ खड़ा न रह सका। गंगातट की ओर भागा।

मुन्नी ने कहा–‘तो भाग जाने से क्या होगा? अगर बुरा लगता है तो जाकर समझाओ।’

‘मेरी बात कौन सुनेगा मुन्नी?’

‘तुम्हारी बात न सुनेंगे, तो और किसकी बात सुनेंगे लाला?’

‘ और जो किसी ने न माना?’

‘और जो मान गये! आओ, कुछ-कुछ बदलो।’

‘अच्छा क्या बदती हो?’

‘मान जायँ तो मुझे एक साड़ी अच्छी-सी ला देना।’

‘और न माना, तो तुम मुझे क्या दोगी?’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book