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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘नहीं, कहानी नहीं है, सच्ची बात है।’

अमर ने मुसलमानों के हमले, क्षत्राणियों के जुहार और राजपूत वीरों के शौर्य की चर्चा करते हुए कहा– ‘उन देवियों को आग में जल मरना मंजूर था; पर यह मंजूर न था कि परपुरुष की निगाह भी उन पर पड़े। अपनी आन पर मर मिटती थीं। हमारी देवियों का यह आदर्श था। आज यूरोप का क्या आदर्श है? जर्मन सिपाही फ्रांस पर चढ़ आये और पुरुषों से गाँव खाली हो गये, तो फ्रांस की नारियाँ जर्मन सैनिकों ही से प्रेम-क्रीड़ा करने लगीं।’

मुन्नी नाक सिकोड़कर बोली–‘बड़ी चंचल हैं सब; लेकिन उन स्त्रियों से जीते जी कैसे जला जाता था?’

अमर ने पुस्तक बन्द कर दी– ‘बड़ा कठिन है मुन्नी! यहाँ तो ज़रा सी चिनगारी लग जाती है तो बिलबिला उठते हैं। तभी तो आज सारा संसार उनके नाम के आगे सिर झुकाता है। मैं तो जब यह कथा पढ़ता हूँ तो रोएँ खड़े हो जाते हैं। यही जी चाहता है कि जिस पवित्र भूमि पर उन देवियों की चिताएँ बनीं, उनकी राख सिर पर चढ़ाऊँ, आँखों में लगाऊँ और वहीं मर जाऊँ।’

मुन्नी किसी विचार में डूबी भूमि की ओर ताक रही थी।

अमर ने फिर कहा–‘कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता था कि पुरुषों को घर के माया-मोह से मुक्त करने के लिए स्त्रियाँ लड़ाई के पहले ही जुहार कर लेती थीं। आदमी की जान इतनी प्यारी होती है कि बूढ़े भी मरना नहीं चाहते। हम नाना कष्ट झेलकर भी जीते हैं। बड़े-बड़े ऋषि-महात्मा भी जीवन का मोह नहीं छोड़ सकते; पर उन देवियों के लिए जीवन खेल था।

मुन्नी अब भी मौन खड़ी थी। उसके मुख का रंग उड़ा हुआ था, मानो कोई दुस्साह अन्तर्वेदना हो रही है।

अमर ने घबड़ाकर पूछा–‘कैसा जी है मुन्नी? चेहरा क्यों उतरा हुआ है?’

मुन्नी ने क्षीण मुस्कान के साथ कहा–‘मुझसे पूछते हो? मुझे क्या हुआ।’

‘कुछ बात तो है! मुझसे छिपाती हो।’

‘नहीं जी, कोई बात नहीं।’

एक मिनट के बाद उसने फिर कहा–‘तुमसे आज अपनी कथा कहूँ सुनोगे?’

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