उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
शान्तिकुमार उसका विनोद न समझ सके। उदास होकर बोले–‘क्या तुम्हारा भी यही विचार है नैना?’
नैना ने और रद्दा जमाया–‘आप अछूतों को मन्दिर में भर देंगे, तो देवता भ्रष्ट न होंगे?’
शान्तिकुमार ने गम्भीर भाव से कहा–‘मैंने तो समझा था, देवता भ्रष्टों को पवित्र करते हैं, खुद भ्रष्ट नहीं होते।’
सहसा ब्रह्मचारी ने गरजकर कहा–‘तुम लोग क्या यहाँ बलवा करने आये हो, ठाकुरजी के मन्दिर के द्वार पर?’
एक आदमी ने आगे बढ़कर कहा–‘हम फ़ौजदारी करने नहीं आये हैं। ठाकुरजी के दर्शन करने आये हैं।’
समरकान्त ने उस आदमी को धक्का देकर कहा– ‘तुम्हारे बाप–दादा भी कभी दर्शन करने आए थे कि तुम्हीं सबसे वीर हो!’
शान्तिकुमार ने उस आदमी को संभालकर कहा– ‘बाप–दादों ने जो काम नहीं किया, क्या पोतों–परोतों के लिए भी वर्जित है लालाजी? बाप-दादे तो बिजली और तार का नाम तक नहीं जानते थे, फिर आज इन चीजों का क्यों व्यवहार होता है? विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।’
समरकान्त ने व्यंग्य से कहा–‘इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुर जी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे?’
शान्तिकुमार ने प्रतिवाद किया– ‘ठाकुरजी का द्रोही मैं नहीं हूँ, द्रोही वह है जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिन्दू संस्कारों को नहीं मानते? फिर आपने मन्दिर का द्वार क्यों बन्द कर रखा है?’
ब्रह्मचारी ने आँखें निकालकर कहा–जो लोग माँस–मदिरा खाते हैं, निखिद कर्म करते हैं, उन्हें मन्दिर में नहीं आने दिया जा सकता है।’
शान्तिकुमार ने शान्त भाव से जवाब दिया–‘माँस–मदिरा तो बहुत से ब्राह्माण, क्षत्री वैश्य भी खाते हैं। आप उन्हें क्यों नहीं रोकते? भंग तो प्रायः सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहाँ आचार्य और पुजारी बने हुए हैं?’
समरकान्त ने डंडा सँभालकर कहा–‘यह सब यों न मानेंगे। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। ज़रा जाकर थाने में इत्तला कर दो कि यह लोग फ़ौजदारी करने आये हैं।’
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