उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
लेकिन इस साल अनायास ही जिन्सों का भार गिर गया। इतना गिर गया जितना चालीस साल पहले था। जब भाव तेज़ था, किसान अपनी उपज बेच-बेचकर लगान दे देता था; लेकिन जब दो और तीन की जिन्स एक में बिके तो किसान क्या करे? कहां से लगान दे, कहाँ से दस्तूरियाँ दे, कहाँ से कर्ज़ चुकाये? विकट समस्या आ खड़ी हुई; और यह दशा कुछ इसी इलाक़े की न थी। सारे प्रान्त, सारे देश, यहाँ तक कि सारे संसार में यही मन्दी थी! चार सेर का गुड़ कोई दस सेर में भी नहीं पूछता। आठ सेर का गेहूँ डेढ़ रुपये मन में ही मँहगा है। तीस रुपये मन का कपास दस रुपये में जाता है, सोलह रुपये मन का सन चार रुपये में। किसानों ने एक-एक दाना बेच डाला, भूसे का एक तिनका भी न रखा; लेकिन यह सब-कुछ करने पर भी चौथाई लगान से ज़्यादा न अदा कर सके। और ठाकुरद्वारे में वही उत्सव थे, वही जल-विहार थे। नतीजा यह हुआ कि हलके में हाहाकार मच गया। इधर कुछ दिनों में स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त के उद्योग से इलाके में विद्या का कुछ प्रचार हो रहा था और कई गाँवों में लोगों ने दस्तूरी देना बन्द कर दिया था। महन्तजी के प्यादे और कारकून पहले ही से जले बैठे थे। यों तो दाल न गलती थी। बकाया लगान ने उन्हें अपने दिल का गुबार निकालने का मौक़ा दे दिया।
एक दिन गंगा-तट पर इस समस्या पर विचार करने के लिए एक पंचायत हुई। सारे इलाक़े के स्त्री-पुरुष जमा हुए, मानो किसी पर्व का स्नान करने आये हों। स्वामी आत्मानन्द सभापति चुने गये।
पहले भोला चौधरी खड़े हुए। वह पहले किसी अफ़सर के कोचवान थे। अब नए साल से फिर खेती करने लगे थे। लम्बी नाक, काला रंग, बड़ी-बड़ी मूछें और बड़ी-सी पगड़ी। मुँह पगड़ी में छिप गया था। बोले– ‘पंचों, हमारे ऊपर जो लगान बँधा हुआ है वह तेज़ी के समय का है। इस मन्दी में वह लगान देना हमारे काबू से बाहर है। अब की अगर बैल-बधिया बेचकर दे भी दें, तो आगे क्या करेंगे? बस, हमें इसी बात की तसफिया करना है। मेरी गुजारिस तो यही है कि हम सब मिलकर महन्त महाराज के पास चलें और उनसे अरज-मारूज़ करें। अगर वह न सुने तो हाकिम जिला के पास चलना चाहिए। मैं औरों की नहीं कहता। मैं गंगा माता की कसम खाके कहता हूँ कि मेरे घर में छटाँक भर भी अन्न नहीं है, और जब मेरा यह हाल है तो और सबों का भी यही हाल होगा। उधर महन्तजी के यहाँ वही बहार है। अभी पसों एक हज़ार साधुओं को आम की पंगत दी गयी। बनारस और लखनऊ से कई डब्बे आमों के आये हैं। आज सुनते हैं फिर मलाई की पंगत है। हम भूखों मरते हैं, वहाँ मलाई उड़ती है। उस पर हमारा रक्त चूसा जा रहा है। बस, यही मुझे पंचों से कहना है।’
गूदड़ ने धँसी हुई आँखें फाड़कर कहा–‘महन्तजी हमारे मालिक हैं, अन्नदाता हैं, महात्मा हैं। हमारा दुःख सुनकर ज़रूर हमारे ऊपर दया आयेगी; इसलिए हमें भोला चौधरी की सलाह मंजूर करनी चाहिए। अमर भैया हमारी ओर से बातचीत करेंगे। हम और कुछ नहीं चाहते। बस, हमें और हमारे बाल-बच्चों को आध-आध सेर रोजीना के हिसाब से दिया जाय। उपज जो कुछ हो वह सब महन्तजी ले जायें। हम घी-दूध नहीं माँगते, दूध-मलाई नहीं माँगते; खाली आध सेर मोटा अनाज माँगते हैं। इतना भी न मिलेगा तो हम खेती न करेंगे। मजूरी और बीज किसके घर से लायेंगे? हम खेत छोड़ देंगे, इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है।’
सलोनी ने हाथ चमकाकर कहा–‘खेत क्यों छोड़ें? बाप-दादों को निशानी है। उसे नहीं छोड़ सकते। खेत पर परान दे दूँगी। एक था,तब दो हुए, तब चार हुए, अब क्या धरती सोना उगलेगी!’
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