उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘हुजूर ने बड़े साहब को समझाया नहीं?’
‘मेरे दिल पर इस वक़्त जो कुछ गुज़र रही है, वह मैं ही जानता हूँ हनीफ आदमी, नहीं फ़रिश्ता है। यह है सरकारी नौकरी।’
‘तो हुज़ूर को जाना पड़ेगा?’
‘हाँ, इसी वक़्त! इस तरह दोस्ती का हक़ अदा किया जाता है।’
‘तो उन बाबू साहब को नज़र बन्द किया जायेगा हुज़ूर?’
‘ख़ुदा जाने क्या किया जायेगा? ड्राइवर से कहो, मोटर लाये। शाम तक लौट आना ज़रूरी है।
ज़रा देर में मोटर आ गयी। सलीम उसमें आकर बैठा, तो उसकी आँखें सजल थीं।
७
आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाये उनका आशीर्वाद बटोर रही थी।
इसी वक़्त, स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोनों दो दिशाओं से मदरसे में आये।
अमरकान्त ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा–‘हम लोगों ने कितना अच्छा प्रोग्राम बनाया था कि एक साथ लौटे। एक क्षण का भी विलम्ब न हुआ। कुछ खा-पीकर फिर निकलें और आठ बजते-बजते लौट आयें।’
आत्मानन्द ने भूमि पर लेटकर कहा–भैया, अभी तो मुझसे एक पग चला न जायेगा। हाँ, प्राण लेना चाहो, तो ले लो। भागते-भागते कचूमर निकल गया। पहले शर्बत बनवाओ, पीकर ठण्डे हों, तो आँखें खुलें।’
‘तो फिर काम समाप्त हो चुका।’
‘हो या भाड़ में जाय, क्या प्राण दे दें। तुमसे हो सकता है करो, मुझसे तो नहीं हो सकता।’
अमर ने मुस्कराकर कहा–‘यार! मुझसे दूने तो हो, फिर भी चें बोले गये। मुझे अपना बल और अपना पाचन दे दो, फिर देखो, मैं क्या करता हूँ।’
|