उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त ने गम्भीर होकर कहा–‘सुखदा, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मैंने इस लड़ाई से बचने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। इन दो सालों में मुझमें कितना परिवर्तन हो गया है, कभी-कभी मुझे इस पर स्वयं आश्चर्य होता है। मुझे जिन बातों से घृणा थी, वह सब मैंने अंगीकार कर ली; लेकिन अब उस सीमा पर आ गया हूँ कि जौ-भर भी आगे बढ़ा, तो ऐसे गर्त में जा गिरूँगा, जिसकी थाह नहीं है। उस सर्वनाश की ओर मुझे मत ढकेलो।’
सुखदा को इस कथन में अपने ऊपर लांछन का आभास हुआ। इसे वह कैसे स्वीकार करती? बोली– ‘इसका तो यही आशय है कि मैं तुम्हारा सर्वनाश करना चाहती हूँ। अगर अब तक मेरे व्यवहार का यही तत्त्व तुमने निकाला है, तो तुम्हें इससे बहुत पहले मुझे विष देना चाहिए था। अगर तुम समझते हो कि मैं भोग-विलास की दासी हूँ और केवल स्वार्थवश तुम्हें समझाती हूँ, तो तुम मेरे साथ घोरतम अन्याय कर रहे हो। मैं तुमको बता देना चाहती हूँ कि विलासिनी सुखदा अवसर पड़ने पर जितने कष्ट झेलने की सामर्थ्य रखती है; उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं तुम्हारे पतन का साधन बनूँ। हाँ, जलने के लिए स्वयं चिता बनाना मुझे स्वीकार नहीं। मैं जानती हूँ कि तुम थोड़ी बुद्धि से काम लेकर अपने सिद्धान्त और धर्म की रक्षा भी कर सकते हो और घर की तबाही को भी रोक सकते हो। दादाजी पढ़े-लिखे आदमी हैं, दुनिया देख चुके हैं। अगर तुम्हारे जीवन में कुछ सत्य है, तो उसका उन पर प्रभाव पड़े बगैर नहीं रह सकता। आये दिन की झौड़ से तुम उन्हें और भी कठोर बनाये देते हो। बच्चे भी मार से जिद्दी हो जाते हैं। बूढ़ों की प्रकृति कुछ बच्चों ही-सी होती है। बच्चों की भाँति उन्हें भी तुम सेवा और भक्ति से ही अपना सकते हो।’
अमर ने पूछा–‘चोरी का माल खरीदा करूँ?’
‘कभी नहीं।’
‘लड़ाई तो इसी बात पर हुई।’
‘तुम उस आदमी से कह सकते थे–दादा आ जाएँ तब लाना।’
‘और अगर वह न मानता? उसे तत्काल रुपये की ज़रूरत थी।’
‘आपद्धर्म भी कोई चीज़ है?’
‘वह पाखण्डियों का पाखण्ड है।’
‘तो मैं तुम्हारे निर्जीव आदर्शवाद को भी पाखण्डियों का पाखण्ड समझती हूँ।’
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