उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर ने आपत्ति की–‘लेकिन रंडियों का नाच तो ऐसे शुभ अवसर पर कुछ शोभा नहीं देता।’
लालाजी ने प्रतिवाद किया–‘तुम अपना विज्ञान यहाँ न घुसेड़ो, मैं तुमसे सलाह नहीं पूछ रहा हूँ। कोई प्रथा चलती है, तो उसका आधार भी होता है। श्रीरामचन्द्र के जन्मोत्सव में अप्सराओं का नाच हुआ था। हमारे समाज में इसे शुभ माना गया है।’
अमर ने कहा–‘अंग्रेजों के समाज में तो इस तरह के जलसे नहीं होते।’
लालाजी ने बिल्ली की तरह चूहे पर झपटकर कहा–‘ अँग्रेजों के यहाँ रंडियाँ नहीं, घर की बहू-बेटियाँ नाचती हैं, जैसे हमारे चमारों में होता है। बहू-बेटियों को नचाने से तो यह कहीं अच्छा है कि रंडियाँ नाचें। कम-से-कम मैं और मेरी तरह के और बुढ्ढे अपनी बहू-बेटियों को नचाना कभी पसन्द न करेंगे।’
अमरकान्त को कोई जवाब न सूझा। सलीम और दूसरे यार-दोस्त आयेंगे। खासी चहल-पहल रहेगी। उसने जिद भी की, तो क्या नतीजा। लालाजी मानने के नहीं। फिर एक उसके करने से तो नाच का बहिष्कार हो नहीं जाता!
वह बैठकर तख़मीना लिखने लगा।
सलीम ने मालूम से कुछ पहले उठकर काले खाँ को बुलाया और रात का प्रस्ताव उसके सामने रखा। दो सौ रुपये की रकम कुछ नहीं होती। काले खाँ ने छाती ठोककर कहा–‘भैया, एक-दो जूते की क्या बात है, कहो तो इजलास पर पचास गिनकर लगाऊँ। छः महीने से बेसी तो होती नहीं। दो सौ रुपये बाल-बच्चों के खाने-पीने के लिए बहुत हैं।’
१२
सलीम ने सोचा अमरकान्त रुपये लिए आता होगा, पर आठ बजे, नौ का अमल हुआ और अमर का कहीं पता नहीं। आया क्यों नहीं? कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया। ठीक है, रुपये का इन्तज़ाम कर रहा होगा। बाप तो टका न देगा। सास से जाकर कहेगा, तब मिलेंगे। आख़िर दस बज गये। अमरकान्त के पास चलने को तैयार हुआ कि प्रो. शान्तिकुमार आ पहुँचे। सलीम ने द्वार तक जाकर उनका स्वागत किया। प्रो. शान्तिकुमार ने कुरसी पर लेटते हुए पंखा चलाने का इशारा करके कहा–‘तुमने कुछ सुना, अमर के घर लड़का हुआ है। वह आज कचहरी न जा सकेगा। उसकी सास भी वहीं हैं। समझ में नहीं आता आज का इन्तजाम कैसे होगा? उसके बगैर हम किसी तरह का डिमान्सट्रेशन (प्रदर्शन) न कर सकेंगे। रेणुका देवी आ जातीं, तो बहुत-कुछ हो जाता,पर उन्हें भी फुरसत नहीं है।’
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