उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
एक क्षण के बाद डॉक्टर साहब घड़ी देखते हुए बोले– ‘आज इस लौंडे पर ऐसी गुस्सा आ रही है कि गिनकर पचास हन्टर जमाऊँ। इतने दिनों तक इस मुकदमे के पीछे सिर पटकता फिरा, और आज जब फैसले का दिन आया तो लड़के का जन्मोत्सव मनाने बैठ रहा। न जाने हम लोगों में अपनी ज़िम्मेदारी का ख़याल कब पैदा होगा? पूछो, इस जन्मोत्सव में क्या रखा है। मर्द का काम है संग्राम में डटे रहना, खुशियाँ मनाना तो विलासियों का काम है। मैंने फटकारा तो हँसने लगा। आदमी वह है जो जीवन का एक लक्ष्य बना ले और ज़िन्दगी-भर उसके पीछे पड़ा रहे। कभी कर्तव्य से मुँह न मोड़े। यह क्या कि कटे हुए पतंग की तरह जिधर हवा उड़ा ले जाए, उधर चला जाए। तुम तो कचहरी चलने को तैयार हो? हमें और कुछ नहीं कहना है, अगर फैसला अनुकूल है, तो भिखारिन को जुलूस के साथ गंगा-तट तक लाना होगा। वहाँ सब लोग स्नान करेंगे और अपने घर चले जायेंगे। सज़ा हो गयी तो उसे बधाई देकर विदा करना होगा। आज ही शाम को ‘तालीमी इसलाह’ पर मेरी स्पीच होगी। उसकी भी फ़िक्र करनी है। तुम भी कुछ बोलोगे?
सलीम ने सकुचाते हुए कहा–‘मैं ऐसे मसले पर क्या बोलूँगा?’
‘क्यों, हरज क्या है? मेरे ख़यालात तुम्हें मालूम हैं। यह केराये की तालीम हमारे कैरेक्टर को तबाह किए डालती है। हमने तालीम को भी व्यापार बना लिया है। व्यापार में ज़्यादा पूँजी लगाओ, ज़्यादा नफा होगा। तालीम में भी खर्च ज़्यादा करो, ज़्यादा ऊँचा ओहदा पाओगे। मैं चाहता हूँ. ऊँची-से-ऊँची तालीम सबके लिए मुआफ़, हो ताकि ग़रीब-से-ग़रीब आदमी भी ऊँची-से-ऊँची लियाकत हासिल कर सके और ऊँचे-से-ऊँचा ओहदा पा सके। युनिवर्सिटी के दरवाजे़ मैं सबके लिए खुले रखना चाहता हूँ। सारा ख़र्च गवर्नमेंट पर पड़ना चाहिए। मुल्क को तालीम की उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरत हैजितनी फ़ौज की।’
सलीम ने शंका की–फ़ौज न हो, तो मुल्क की हिफ़ाजत कौन करे?
डॉक्टर साहब ने गंभीरता के साथ कहा– ‘मुल्क की हिफ़ाजत करेंगे हम और तुम और मुल्क के दस करोड़ जवान जो अब बहादुरी और हिम्मत में दुनिया की किसी क़ौम से पीछे नहीं है। उसी तरह, जैसे हम और तुम रात को चोरों के आ जाने पर पुलिस को नहीं पुकारते, बल्कि अपनी-अपनी लकड़ियाँ लेकर घरों से निकल पड़ते हैं।’
सलीम ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा–‘मैं बोल तो न सकूँगा. लेकिन आऊँगा जरूर।’
सलीम ने मोटर मँगवाई और दोनों आदमी कचहरी चले। आज वहाँ और दिनों से कहीं ज़्यादा भीड़ थी, पर जैसे बिन दूल्हा की बारात हो। कहीं कोई श्रृंखला न थी! सौ-सौ पचास-पचास की टोलियाँ जगह-जगह खड़ी या बैठी शून्य-दृष्टि से ताक रही थीं। कोई को देखते ही हज़ारों आदमी उनकी तरफ़ दौड़े। डॉक्टर साहब मुख्य कार्यकर्ताओं को आवश्यक बातें समझाकर वकालतखाने की तरफ़ चले, तो देखा लाला समरकान्त सबको निमन्त्रण-पत्र बाँट रहे हैं। वह उत्सव उस समय वहाँ सबसे आकर्षक विषय था। लोग बड़ी उत्सुकता से पूछ रहे थे, कौन-कौन-सी तबायफ़ें बुलाई गयी हैं? भाँड़ भी है या नहीं? माँसाहारियों के लिए भी कुछ प्रबन्ध है? एक जगह दस-बारह सज्जन नाच पर वाद-विवाद कर रहे थे। डॉक्टर साहब को देखते ही एक महाशय ने पूछा–‘कहिए आप उत्सव में आयेंगे, या आपको कोई आपत्ति है?’
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