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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


झिनकू–सरकार, तोंद होती, तो आज मारा-मारा क्यों फिरता? मुझे भी न लोग झिनकू उस्ताद कहते! कभी तबला न होता तो तोंद ही बजा देता, मगर तोंद न रहने में कोई हरज नहीं है, यहाँ कई पंडित बिना तोंद के भी हैं।

मुंशी–कोई बड़ा पंडित भी है बिना तोंद का?
झिनकू–नहीं सरकार, कोई बड़ा पंडित तो नहीं है। तोंद के बिना कोई बड़ा हो कैसे जायगा? कहिए तो कुछ कपड़े लपेटूँ?

मुंशीन–तुम तो कपड़े लपेटकर पिंडरोगी से मालूम होगे। तकदीर पेट पर सबसे ज़्यादा चमकती है। इसमें शक नहीं, लेकिन और अंगों पर भी तो कुछ-न-कुछ असर होता ही है, यह राग न चलेगा, भाई किसी और को फाँसो।

झिनकू–सरकार, अगर मालकिन को खुश न कर दूँ, तो नाक काट लीजिएगा। कोई अनाड़ी थोड़े ही हूँ!

खैर, तीनों आदमी मोटर पर बैठे और एक क्षण में घर जा पहुँचे। दीवान साहब ने जाकर कहा–पंडितजी आ गए, बड़ी मुश्किल से आए हैं।

इतने में मुंशीजी भी आ पहुँचे और बोले–कोई नया आसन बिछाइएगा। कुर्सी पर नहीं बैठते। आज न जाने क्या समझकर इस वक़्त आ गए, नहीं तो दोपहर के पहले कोई लाख रुपये दे तो नहीं जाते।

पंडितजी बड़े गर्व के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे। लौंगी ने उनकी ओर ध्यान से देखा और तीव्र स्वर में बोली–आप जोतसी हैं? ऐसी ही सूरत होती है जोतसियों की? मुझे तो कोई भाँड़ से मालूम होते हो?

मुंशीजी ने दाँतों तले ज़बान दबा ली, दीवान साहब ने छाती पर हाथ रखा और झिनकू के चेहरे पर तो मुर्दनी छा गई। कुछ जवाब देते ही न बन पड़ा। आखिर मुंशीजी बोले–यह क्या ग़ज़ब करती हो, लौंगी रानी!  अपने घर पर बुलाकर महात्माओं की यह इज़्ज़त की जाती है ?

लौंगी–लाला तुमने बहुत दिनों तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप में बाल नहीं पकाए हैं। एक बहुरूपिए को लाकर खड़ा कर दिया, ऊपर से कहते हैं जोतसी है, ऐसी ही सूरत होती है जोतसी की? मालूम होता है, महीनों से दाने की सूरत नहीं देखी। मुझे क्रोध तो इन दीवान पर आता है, तुम्हें क्या कहूँ?

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