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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा के इन सरल भावों ने चक्रधर की आँखें खोल दीं। उन्होंने उसे विलासिनी, मायाविनी, छलिनी समझ रखा था। अब ज्ञात हुआ कि यह वही सरल बालिका है, जो निस्संकोच भाव से उनके सामने अपना हृदय खोलकर रख दिया करती थी। चक्रधर स्वार्थन्ध न थे, विवेकशून्य भी न थे, कारावास में उन्होंने आत्म-चिन्तन भी बहुत किया था। परोपरकार के लिए वह अपने प्राणों को उत्सर्ग कर सकते थे; पर मन की लीला विचित्र है, वह विश्व-प्रेम से भरा होने पर भी अपने भाई की हत्या कर सकता है, नीति और धर्म के शिखर पर बैठकर भी कुटिल प्रेम में रत हो सकता है। कुबेर का धन रखने पर भी उसे प्रेम का गुप्त दान लेने में संकोच नहीं होता। मनोरमा के ये शब्द सुनकर चक्रधर का मन पुलकित हो उठा। लेकिन संयम वह मित्र है, जो ज़रा देर के लिए चाहे आँखों से ओझल हो जाये, पर धारा के साथ बह नहीं सकता। संयम अजेय है, अमर है। चक्रधर सँभल गए, बोले– नहीं मनोरमा, अब मैं तुम्हें न पढ़ा सकूँगा। मुझे क्षमा करो। मुझे क्षमा करो। मुझे देहातों में बहुत घूमना है। महीनों शहर न आ सकूँगा! तुम्हारे पढ़ने में हरज होगा!

मनोरमा–यहाँ बैठे-बैठे अपने स्वयंसेवकों द्वारा क्या काम नहीं करा सकते?

चक्रधर–नहीं, यह सम्भव नहीं है। हमारे नेताओं में यही बड़ा ऐब है कि वे स्वयं देहातों में न जाकर शहरों में ज़मे रहते हैं, जिससे देहातों की सच्ची दशा उन्हें नहीं मालूम होती, न उन्हें वह शक्ति ही हाथ आती है, न जनता पर उनका प्रभाव ही पड़ता है, जिसके बगैर राजनीतिक सफलता हो ही नहीं सकती। मैं उस ग़लती में न पड़ूँगा।

मनोरमा–आप बहाने बनाकर मुझे टालना चाहते हैं, नहीं तो मोटर पर तो आदमी रोज़ाना एक सौ मील आ-जा सकता है। कोई मुश्किल बात नहीं।

चक्रधर–उड़न खटोले पर बैठकर संगठन नहीं किया जा सकता। ज़रूरत है तो जनता में जागृति फैलाने की, उनमें उत्साह और आत्मबल का संचार करने की। चलती गाड़ी से यह उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता।

मनोरमा–अच्छा, तो मैं आपके देहातों में घूमूँगी। इसमें तो आपको आपत्ति नहीं है?

चक्रधर–नहीं मनोरमा, तुम्हारा कोमल शरीर उन कठिनाइयों को न सह सकेगा। तुम्हारे हाथ में ईश्वर ने एक बड़ी रियासत की बागड़ोर दे दी है। तुम्हारे लिए इतना ही काफ़ी है कि अपनी प्रजा को सुखी और सन्तुष्ट रखने की चेष्टा करो। यह छोटा काम नहीं है।

मनोरमा–मैं अकेली कुछ न कर सकूँगी। आपके इशारे पर सब कुछ कर सकती हूँ। आपसे अलग रहकर मेरे किए कुछ भी न होगा! कम-से-कम आप इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने कामों में मुझसे धन की सहायता लेते रहें। ज्यादा तो नहीं, पाँच हज़ार रुपये प्रति मास आपको भेंट कर सकती हूँ, आप जैसे चाहें उसका उपयोग करें। मेरे सन्तोष के लिए इतना ही काफ़ी है कि वे आपके हाथों ख़र्च हों। मैं कीर्ति की भूखी नहीं। केवल आपकी सेवा करना चाहती हूँ। इससे मुझे वंचित न कीजिए। आप में न जाने वह कौन-सी शक्ति है, जिसने मुझे वशीभूत कर लिया है। मैं न कुछ सोच सकती हूँ, न समझ सकती हूँ, केवल आपकी अनुगामिनी बन सकती हूँ।

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