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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अहिल्या–यह तो आप अपने मुख से पूछें, जो उदास हो रहा है।

चक्रधर ने हँसने की विफल चेष्टा करके कहा–यह तुम्हारा भ्रम है। मैं तो इतना खुश हूँ कि डरता हूँ, लोग मुझे ओछा न समझने लगें।

मगर चक्रधर जितना ही अपनी चिन्ता को छिपाने का प्रयत्न करते, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख बनाए रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र हो जाता है।

अहिल्या ने गम्भीर भाव से कहा–तुम्हारी इच्छा है,  न बताओ; लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।

यह कहते-कहते अहिल्या की आँखें सजल हो गई। चक्रधर से अब ज़ब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाईं और अन्त में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहिल्या ने गर्व से कहा–अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? मैं घर चलूँगी। माता-पिता की अप्रसन्नता के भय से कोई अपना घर नहीं छोड़ देता। वे कितने ही नाराज़ हों, हैं, तो हमारे माता-पिता! हम लोगों ने कितना ही अनुचित किया हो, हैं तो उन्हीं के बालक। इस नाते को कौन तोड़ सकता है? आप इन चिन्ताओं को दिल से निकाल डालिए।

चक्रधर–निकालना तो चाहता हूँ, पर नहीं निकलतीं। बाबूजी यों तो आदर्श पिता हैं; लेकिन उनके सामाजिक विचार इतने संकीर्ण हैं कि उनमें धर्म का स्थान भी नहीं। मुझे भय है कि वह मुझे घर में जाने ही न देंगे। इसमें हरज़ ही क्या है कि हम लोग प्रयाग उतर पड़ें और जब तक घर के लोग हमारा स्वागत करने को तैयार न हों, यहीं पड़े रहें।

अहिल्या–आपको कोई हरज न मालूम होता हो, मुझे तो माता-पिता से अलग स्वर्ग में रहना भी अच्छा न लगेगा। आख़िर उनकी सेवा करने का और अवसर मिलेगा? वे कितना ही रूठें, हमारा यही धर्म है कि उनका दामन न छोड़ें। बचपन में अपने स्वार्थ के लिए तो हम कभी माता-पिता की अप्रसन्नता की परवाह नहीं करते; मचल-मचलकर उनकी गोद में बैठते हैं, मार खाते हैं, घुड़के जाते हैं पर उनका गला नहीं छोड़ते; तो अब उनकी सेवा करने के समय उनकी अप्रसन्नता से मुँह फुला लेना हमें शोभा नहीं देता। आप उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें, मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूँगी।

चक्रधर ने अहिल्या को गद्गद नेत्रों से देखा और चुप हो रहे।

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