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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मुंशीजी को गए अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी। चक्रधर सहसा चौंक पड़े और कुर्सी से उठकर खड़े हो गए। मनोरमा के सामने ताकने की उनकी हिम्मत न पड़ी, मानो कोई अपराध किया हो। मनोरमा ने उन्हें देखते ही कहा–बाबूजी, आप चुपके-चुपके बहू को उड़ा लाए और मुझे ख़बर तक न दी! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाए।

चक्रधर ने मनोरमा की ओर लज्जित होकर देखा, तो उसका मुख उठा हुआ था। वह मुस्कुरा रही थी, पर आँखों में आँसू झलक रहे थे। इन नेत्रों में कितनी विनय थी, कितना बैराग्य, कितनी तृष्णा, कितना तिरस्कार! चक्रधर को उसका जवाब देने को शब्द न मिले। मनोरमा ने सिर झुकाकर कहा–आपको मेरी सुधि ही न रही होगी, सौगात कौन लाता? बहू से बातें करने में दूसरों की सुधि क्यों आती! बहिन, आप उतनी दूर क्यों खड़ी हैं। आइए, आइए, आपसे गले तो मिल लूँ। आपसे तो मुझे कोई शिकायत नहीं।

यह कहकर वह अहिल्या के पास गयी और दोनों गले मिलीं। मनोरमा ने रूमाल से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहिल्या के हाथ में पहना दिया और छत की ओर ताकने लगी, जैसे एकाएक कोई बात याद आ गई हो; सहसा उसकी दृष्टि आईने पर जा पड़ी। अहिल्या का रूप चन्द्र अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ उसमें प्रतिबिम्बित हो रहा था। मनोरमा उसे देखकर अवाक् हो गई। मालूम हो रहा था, किसी देवता का आशीर्वाद मूर्तिमान होकर आकाश से उतर आया है। उसकी सरल, शान्त, शीतल छवि के सामने उसका विशाल सौन्दर्य ऐसा मालूम होता था, मानो कुटी के सामने कोई भवन खड़ा हो। यह उन्नत भवन इस समय इस शान्त-कुटी के सामने झुक गया। भवन सूना था, कुटी में एक आत्मा शयन कर रही थी।

इतने में अहिल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान-इलाइची देते हुए बोली–आपको मेरे कारण बड़ी तक़लीफ़ हुई। यह आपके आराम करने का समय था। मैं जानती कि आप आएँगी, तो यहाँ किसी दूसरे वक़्त...

चक्रधर मौक़ा देखकर बाहर चले गए थे। उनके रहने से दोनों ही को संकोच होता; बल्कि तीनों चुप रहते।

मनोरमा ने क्षुधित नेत्रों से अहिल्या को देखकर कहा–नहीं बहिन, मुझे ज़रा भी तक़लीफ़ नहीं हुई। मैं तो यों भी बारह-एक के पहले नहीं सोती। तुम से मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। मैंने अपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी ही निकलीं, तुम ऐसी न होतीं, तो बाबूजी तुम पर रीझते ही क्यों? अहिल्या, तुम बड़ी भाग्यवान् हो! तुम्हारी जैसी भाग्याशाली स्त्रियाँ बहुत कम होंगी। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।

अहिल्या पति-प्रशंसा से गर्वोन्नत होकर बोली–आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये!

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