लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


ठाकुर साहब ने दीवानखाने में अपना दफ़्तर बना लिया था। जब कोई ज़रूरत होती, तुरन्त रनिवास में पहुँच जाते। रानियाँ उनसे पर्दा तो करती थीं, पर पर्दे की ओट से बातचीत कर लेती थीं। रानी वसुमती इस ओट को भी अनावश्यक समझती थीं। कहतीं–जब बातें ही कीं, तो पर्दा कैसा? ओट क्यों? गुड़ खाएँ गुल-गुले से परहेज़। उन्हें अब संसार से विराग-सा हो गया था। सारा समय भगवत पूजन और भजन में काटती थीं। हाँ, आभूषणों से अभी उनका जी न भरा था। और अन्य स्त्रियों की भाँति वह गहने बनवाकर ज़मा न करती थीं, उनका नित्य व्यवहार करती थीं। रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गई थी, माँग-चोटी की भी परवाह न करती! यहाँ तक कि उसने माँग में सिन्दूर डालना छोड़ दिया था। कहती, मुझमें और विधवा में क्या अन्तर है, बल्कि विधवा हमसे हज़ार दर्जे अच्छी; उसे एक यही रोना है कि पुरुष नहीं। जलन तो नहीं! यहाँ तो ज़िन्दगी रोने और कुढ़ने में ही कट रही है। मेरे लिए पति का होना, न होना–दोनों बराबर है, सोहाग लेकर चाटूँ? रहीं रानी रामप्रिया, उनका विद्या-व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी भाँति-भाँति के बाज़े मँगाती रहती थीं। ठाकुर साहब को भी गाने का कुछ शौक़ था या अब हो गया हो। किसी-न-किसी तरह समय निकालकर जा बैठते और उठने का नाम न लेते। रात को अकसर भोजन भी वहीं कर लिया करते। रामप्रिया उनके लिए स्वयं थाली परस लाती थी। ठाकुर साहब की जो इतनी खातिर होने लगी, तो मिज़ाज़ आसमान पर चढ़ गया। नए-नए स्वप्न देखने लगे। समझे, सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया। नौकरों पर अब ज़्यादा रोब ज़माने लगे। सोकर देर में उठते और इलाके का दौरा भी बहुत कम करते। ऐसा जान पड़ता था, मानो इस इलाके के राजा वही हैं। दिनोंदिन यह विश्वास होता जाता था, कि रामप्रिया मेरे नयन-बाणों का शिकार हो गई है, उसके हृदय-पट पर मेरी तसवीर खिंच गई है। रोज़ कोई-न-कोई ऐसा प्रमाण मिल जाता था, जिससे यह भावना और भी दृढ़ हो जाती थी।

एक दिन आपने रामप्रिया की प्रेम-परीक्षा लेने की ठानी। कमरे में लिहाफ़ ओढ़कर पड़ रहे। रामप्रिया ने किसी काम के लिए बुलाया तो कहला भेजा, मुझे रात में ज़ोरों का बुखार है, मारे दर्द के सिर फटा पड़ता है। रामप्रिया यह सुनते ही दीवानखाने में आ पहुँची और उनके सिर पर हाथ रखकर देखा, माता ठंडा था। नाड़ी भी ठीक चल रही थी। समझी, कुछ सिर भारी हो गया होगा, कुछ परवाह न की। हाँ, अन्दर जाकर कोई तेल सिर में लगाने को भिजवा दिया।

ठाकुर साहब को इस परीक्षा में सन्तोष न हुआ। उसे प्रेम है, यह तो सिद्ध था, नहीं तो वह देखने दौड़ी आती ही क्यों, लेकिन प्रेम कितना है, इसका कुछ अनुमान न हुआ। कहीं वह केवल शिष्टाचार के अन्तर्गत न हो। वह केवल शिष्टाचार कर रही हो, और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ। रामप्रिया के अधरों पर, नेत्रों में, बातों में तो उन्हें प्रेम की झलक नज़र आती थी, पर डरते थे कि मुझे भ्रम न हो। अबकी उन्होंने कड़ी परीक्षा लेने की ठानी। क्वार का महीना था। धूप तेज़ होती थी। मलेरिया फैला हुआ था। आप एक दिन दिनभर पैदल खेतों में रहे, कई बार तालाब का पानी भी पिया। ज्वर का पूरा सामान तैयार करके आप घर लौटे। नतीज़ा उनके इच्छानुकूल ही हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल उन्हें ज्वर चढ़ आया और ऐसे ज़ोर से आया कि दोपहर तक बक-झक करने लगे। मारे दर्द के सिर फटने लगा। सारी देह टूट रही थी और सिर में चक्कर आ रहा था। अब तो बेचारे को लेने के देने पड़े। प्रेम-परीक्षा में धैर्य परीक्षा होने लगी और इसमें वह कच्चे निकले। कभी रोते की बाबूजी को बुला दो। कभी कहते, स्त्री को बुला दो। इतना चीखे-चिल्लाए कि नौकरों का नाकोंदम हो गया। रामप्रिया ने आकर देखा, तो होश उड़ गए। देह तवा हो रही थी और नाड़ी घोड़े की भाँति सरपट दौड़ रही थी। बेचारी घबरा उठी। तुरन्त डॉक्टर को लाने के लिए आदमी को शहर दौड़ाया और ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पंखा झलने लगी। द्वार पर चिक डाल दी और एक आदमी को द्वार पर बिठा दिया कि किसी अपरिचित मनुष्य को अन्दर न जाने दे। ठाकुर साहब को सुधि होती और रामप्रिया की विकलता देखते, तो फूले न समाते, पर वहाँ तो जान के लाले पड़े हुए थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book