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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में ले लिया और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले–मेरी सुखदा बिलकुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आँखों में है। मुख से बिल्कुल ऐसी ही थी।

अंदर जाकर चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसी समा गई कि मालूम होता था कि पलंग खाली है, केवल चादर पड़ी है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुँह चादर के बाहर निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह असहाय नेत्रों से आकाश की ओर ताक रही थी!

राजा साहब ने आहिस्ता से कहा–नोरा, तुम्हारे बाबूजी आ गए!

मनोरमा ने तकिए का सहारा लेकर कहा–मेरे धन्य भाग! आइए बाबूजी, आपके दर्शन भी हो गए। तार न जाता, तो आप क्यों आते?

चक्रधर–मुझे तो बिलकुल ख़बर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।

मनोरमा–खैर आप ने बड़ी कृपा की। मुझे तो आपके आने की आशा ही न थी।

राजा–बार-बार कहती थी कि वह न आएँगे, उन्हें इतनी फुरसत कहाँ; पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते। शहर के सब चिकित्सकों को दिखा चुका। किसी से कुछ न हो सका। अब तो ईश्वर ही का भरोसा है।

चक्रधर–मैं भी एक डॉक्टर को साथ लाया हूँ। बहुत ही होशियार आदमी है।

मनोरमा–(बालक को देखकर) अच्छा! अहिल्या देवी भी आयी हैं? ज़रा यहाँ तो लाना, अहिल्या! इसे छाती से लगा लूँ।

राजा–इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है, नोरा! बिलकुल उसका छोटा भाई मालूम होता है!

‘सुखदा’ का नाम सुनकर अहिल्या पहले भी चौंकी थी। अब की वही शब्द सुनकर फिर चौंकी! बाल-स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भाँति चेतना क्षेत्र में आ गई। उसने घूँघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपनी स्मृति पर ऐसा ही आकार खिंचा हुआ मालूम पड़ा।

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