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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


उसी दिन भाई-बहन में भी इसी विषय पर बातें हुईं। मनोरमा ने कहा– भैया क्या तुमने लौंगी अम्मां को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर कांटा हो गए हैं। जब से अम्मां जी का स्वर्गवास हुआ दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेंच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मां जी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहिता स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्मा को अपने साथ लाओ!

गुरुसेवक– मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा?

मनोरमा– क्यों? इसमें आपका अपमान होगा?

गुरुसेवक– वह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुंचेगा।

मनोरमा– अच्छी बात है, तुम न जाओ; लेकिन मेरे जाने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है?

गुरुसेवक– तुम जाओगी?

मनोरमा– क्यों, मैं क्या कहूं! क्या भूल गई हूं, कि लौंगी अम्मा ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात-की-रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को भूल सकती हूं? माता के ऋण से उऋण होना चाहे सम्भव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं। गुरुसेवक लज्जित हुये। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पड़े हुए हैं। पूछा-आपका जी कैसा है?

दीवान साहब की लाल आंखें चढ़ी हुई थीं। बोले-कुछ नहीं जी, जरा सरदी लग रही थी।

गुरुसेवक– आपकी इच्छा हो तो, मैं जाकर लौंगी को बुला लाऊं?

हरसेवक-तुम! नहीं तुम उसे बुलाने क्या जाओगे। कोई जरूरत नहीं उसका जी चाहे, आये या न आये। हुंह! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहां की अमीरजादी है?

दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने तापमान लगाकर देखा, तो ज्वर १॰४ डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया, मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी आई। उसने आते-ही-आते गुरुसेवक से कहा, मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मां को बुला लाइए; लेकिन आप न गये। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते। अब भी मौका है। मैं इनकी देखभाल करती रहूंगी, तुम इसी गाड़ी में चले जाओ और उन्हें साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रुकेंगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं।

दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले-आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरुसेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी, इसमें तुम्हारा अपमान है। भला दुनिया क्या कहेगी? सोचो, कितनी बदनामी की बात है।

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