लोगों की राय

उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

274 पाठक हैं

‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


ठाकुर हरदेवसिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीनों तक नौकरी का वेतन ठीक समय पर देते; पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उनके वेतन की याद भूलती जाती थी। चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश माँगते थे। उधर घर से रोज तकरार होती थी। आखिर एकदिन चक्रधर ने विवश होकर ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन माँगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी की उन्हें फुरसत न थी और-उनको जो कुछ कहना हो खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गये और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपये मांगे। ठाकुर साहब हँसकर बोले-वाह बाबू जी, वाह! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं। चार महीने से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी नहीं माँगा। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी! खैर जाइए; दस-पाँच दिन में रुपये मिल जायेंगे।

चक्रधर कुछ न कह सके। लौटे तो मुख पर घोर निराशा छायी हुई थी। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपको रुपये नहीं दिये?

चक्रधर उसके सामने रुपये– पैसे का जिक्र न करना चाहते थे। मुंह लाल हो गया, बोले-मिल जायेंगे।

मनोरमा– आपको १२॰ रु. चाहिए न?

चक्रधर– इस वक्त कोई जरूरत नहीं है।

मनोरमा– जरूरत न होती तो आप माँगते ही न। देखिए, मैं जाकर…

चक्रधर ने रोक कर कहा– नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न मानी। तुरन्त घर में गयी और एक क्षण में पूरे रुपये लेकर मेज पर रख दिये।

वह तो पढ़ने बैठ गयी; लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपये लूं या ना लूं। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपये लिए बाहर निकल आये। मनोरमा रुपये लिए हुए पीछे-पीछे बरामदे तक आयी। बार-बार कहती रही-इसे आप लेते जाइये, पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गये।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book