उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
वह यह देखना चाहते थे कि क्या नहीं कर सकता। कोई अभ्यस्त परीक्षक मंसाराम की कमजोरियों को आसानी से दिखा देता। पर वकील साहब अपनी आधी शताब्दी भूली हुई शिक्षा के आधार पर इतने सफल कैसे होते? अंत में उन्हें अपना गुस्सा उतारने के लिए कोई बहाना न मिला तो बोले-मैं देखता हूँ, तुम सारे दिन इधर-उधर मटरगश्ती किया करते हो, मैं तुम्हारे चरित्र को तुम्हारी बुद्धि से बढ़कर समझता हूँ और तुम्हारा यों आवारा घूमना मुझे कभी गवारा नहीं हो सकता।
मंसाराम ने निर्भीकता से कहा–मैं शाम को एक घण्टा खेलने के लिए जाने के सिवा दिन भर कहीं नहीं जाता। आप अम्माँ या बुआजी से पूछ लें। मुझे खुद इस तरह घूमना पसन्द नहीं। हाँ खेलने के लिए हेड मास्टर साहब आग्रह करके बुलाते हैं, तो मजबूरन जाना पड़ता है। अगर आपको मेरा खेलना पसन्द नहीं है, तो कल से न जाऊँगा।
मुंशीजी ने देखा कि बातें दूसरे ही रुख पर जा रही हैं, तो तीव्र स्वर में बोले-मुझे इस बात का इतमीनान क्योंकर हो कि खेलने के सिवा कहीं नहीं घूमने जाते; मैं बराबर शिकायतें सुनता हूँ।
मंसाराम ने उत्तेजित होकर कहा–किन महाशय ने आपसे यह शिकायत की है जरा मैं भी तो सुनूँ?
वकील–कोई हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम्हें इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं झूठा आक्षेप नहीं करता।
मंसाराम–अगर मेरे सामने कोई आकर कह दे कि मैंने इन्हें घूमते देखा है, तो मुँह न दिखाऊँ।
वकील–किसी को ऐसी क्या गरज पड़ी है कि तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी शिकायत करे और तुमसे बैर मोल ले? तुम अपने दो चार साथियों को लेकर उसके घर की खपरैल फोड़ते फिरो। मुझसे इस किस्म की शिकायत एक आदमी ने नहीं, कई आदमियों ने दी है और कोई वजह नहीं है कि मैं अपने दोस्तों की बात पर विश्वास न करूँ, मैं चाहता हूँ कि तुम स्कूल ही में रहा करो।
मंसाराम ने मुँह गिराकर कहा–मुझे वहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं है, जब कहिये, चला जाऊँ।
वकील–तुमने मुँह क्यों लटका लिया? क्या वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? ऐसे मालूम होता है, मानो वहाँ जाने के भय से तुम्हारी नानी मरी जा रही है। आखिर बात क्या है वहाँ तुम्हें क्या तकलीफ होगी?
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