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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


फतहचन्द—उसके सामने मेरी कौन सुनेगा। अदालत भी उसी की तरफ हो जाएगी।

शारदा—हो जाएगी, हो जाय; मगर देख लेना, अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियाँ दे बैठे। तुम्हें चाहिए था कि ज्योंही उसके मुँह से गालियाँ निकलीं, लपककर एक जूता रसीद करते।  

फतहचन्द—तो फिर इस वक्त जिन्दा लौट भी न सकता। जरूर मुझे गोली मार देता।

शारदा—देखी जाती।

फतहचन्द ने मुस्कराकर कहा—फिर तुम लोग कहाँ जातीं

शारदा—जहाँ ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत है। इज्जत गँवाकर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मारकर आये हो, मैं गरूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर आते तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती; मगर दिल से तुम्हारी इज्जत जाती रहती। अब तो जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूँगी। कहाँ जाते हो सुनो-सुनो, कहाँ जाते हो।

फतहचन्द दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गयी। वह फिर साहब के बँगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं; बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, आँखों में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट-सी हो गयी। वह कमजोर बदन, पीला मुखड़ा, दुबले बदनवाला दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्यादा चेहरा, हिम्मत से भरा हुआ, मजबूत गठा हुआ जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसका डंडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बँगले पर जा पहुँचे।

इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे।  मगर फतहचन्द ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का इन्तजार न किया। खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठाकर अन्दर गये। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। जमीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी फतहचन्द की शादी में नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उनकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देखकर कहा—तुम क्यों आया, बाहर जाओ, क्यों अन्दर आया

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