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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


फतहचन्द—रहने दो, क्यों डाँटती हो यहाँ आओ चुन्नी, यह लो दालमोट ले जाओ।

चुन्नी माँ की ओर देखकर डरती हुई बाहर भाग गयी।

फतहचन्द ने कहा—क्यों बेचारी को भगा दिया दो-चार दाने दे देता, तो खुश हो जाती।

शारदा—इसमें है ही कितना सबको बाँटते फिरोगे। इसे देते तो बाकी दोनों न आ जातीं। किस-किसको देते

इतने में चपरासी ने फिर पुकारा—बाबूजी, हमें बड़ी देर हो रही है।

शारदा—कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आयेंगे।

फतहचन्द—ऐसा कैसे कह दूँ भाई, रोजी का मामला है।

शारदा—तो क्या प्राण देकर काम करोगे सूरत नहीं देखते अपनी मालूम होता है, छः महीने के बीमार हो।

फतहचन्द ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फाँकियाँ लगायीं, एक गिलास पानी पिया और बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गयी।

चपरासी ने कहा बाबूजी आपने बड़ी देर कर दी अब जरा लपके चलिए, नहीं तो जाते ही डाँट बताएगा।

फतहचन्द ने दो कदम दौड़कर कहा—चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह, चाहे डाँट बताये या दाँत दिखाये! हमसे दौड़ा तो नहीं जाता। बँगले ही पर है न!  

चपरासी—भला वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह है कि दिल्लगी! चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फतहचन्द धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी दूर चलकर हाँफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठाते जाते थे, यहाँ तक कि जाँघों में दर्द होने लगा। और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इन्कार कर दिया। सारा शरीर पसीना से तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आँखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं।

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