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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


चपरासी ने ललकारा—जरा कदम बढ़ाये चलो बाबू! फतहचन्द बड़ी मुश्किल से बोले—तुम जाओ, मैं आता हूँ।

वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये और सिर को दोनों हाथों से थामकर दम मारने लगे। चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फतहचन्द डरे कि यह शैतान जाकर न जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जाएगा। जमीन पर हाथ टेककर उठे और फिर चले। मगर कमजोरी से शरीर हाँफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बँगले पहुँचे। साहब बँगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को आते न देखकर मन-ही-मन झल्लाते थे।

चपरासी को देखते ही आँखें निकालकर बोले—इतनी देर कहाँ था चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा—हजूर! जब वह आवें तब तो, दौड़ा चला आ रहा हूँ।

साहब ने पैर पटक कर कहा—बाबू क्या बोला

इतने  में फतहचन्द अहाते के तार के अन्दर से निकल कर वहाँ आ पहुँचे और साहब को सिर झुकाकर सलाम किया।

साहब ने कड़ककर कहा—अब तक कहाँ था

फतहचन्द ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले—हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूँ, ज्यों चपरासी ने आवाज दी, हाजिर हुआ।

साहब—झूठ बोलता है हम घंटे भर से खड़ा है।

फतहचन्द—हुजूर मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गई हो; मगर घर से चलने में बिल्कुल देर नहीं हुई।

साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा—चुप रह, सुअर, हम घण्टा भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो।

फतहचन्द ने खून की घूँट पीकर कहा—हुजूर, मुझे दस साल काम करते हो गये, कभी...

साहब—चुप रह सुअर, हम कहता है अपना कान पकड़ो।

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